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द्वितीय खण्ड/पंचम पुस्तक
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प्रश्न- अविरत सम्यग्दृष्टि आदिको भी ज्ञानी कहा है, और उनके भय प्रकृति का उदय होता है तथा उसके निमित्त से उनके भय होता हुआ भी देखा जाता है। तब फिर ज्ञानी निर्भय कैसे है ?
समाधान - भय प्रकृति के निमित्त से ज्ञानी को भय उत्पन्न होता है और अन्तराय के प्रबल उदय से निर्बल होने के कारण उस भय की वेदना को सहन न कर सकने से ज्ञानी उस भय का इलाज भी करता है। परन्तु उसे ऐसा भय नहीं होता कि जिससे जीव स्वरूप के ज्ञान श्रद्धान से च्युत हो जाये और जो भय उत्पन्न होता है वह मोहकर्म की भय प्रकति नामक प्रकृति का दोष है। ज्ञानी स्वयं उसका स्वामी होकर कर्ता नहीं होता, ज्ञाताही रहता है। इसलिये ज्ञानी के भय नहीं है। प्रमाण - यहाँ तक निःशंकित अंग का स्वरूप पूरा हुआ। अब कुछ अय़ आगमों के प्रमाण देते हैं -
श्री समयसारजी में कहा है २२८-२२९ सम्मद्दिट्ठी जीवा णिरसंका होंति णिभया तेण ।
सत्तभयविप्पमुक्का जहा तह्मा दु णिरसंका ॥ २२८11 सूत्रार्थ - सम्यग्दृष्टि जीव नि:शंक होते हैं, इसलिये निर्भय होते हैं और क्योंकि वे सप्त भयों से रहित होते हैं, इसलिये निःशंक होते हैं (अडोल होते हैं )। भाव यह है कि सम्यग्दृष्टि जीव सदा ही सर्व कर्मों के फल के प्रति निरभिलाष होते हैं इसलिये वे कर्म के प्रति अत्यन्त निरपेक्षतया वर्तते हैं, इसलिये वास्तव में वे अत्यन्त निःशंक दारुण (सुदढ़) निश्चय वाले होने से अत्यन्त निर्भय है, ऐसी संभावना की जाती है (अर्थात् ऐसा योग्यतया माना जाता है)।
जो चत्तारि वि पाए छिंदटि ते कम्मबंधमोहकरे ।
सो णिररको चेदा सम्मादिट्टी मुणेयचो ॥ २२९॥ सूत्रार्थ - जो चेतयिता कर्मबंध सम्बन्धी मोह करने वाले ( अर्थात् जीव निश्चयतः कर्मों के द्वारा बंधा हुआ है ऐसा भ्रम करने वाले) मिथ्यात्वादी भावरूप चारों पादों को छेदता है, उसको निःशंक सम्यग्दृष्टि जानना चाहिये। भाव यह है कि सम्यग्दृष्टि टंकोत्कीर्ण एक जायकभावमयता के कारण कर्मबन्ध सम्बन्धी शङ्का करने वाले (अर्थात् जीव निश्चयतः कर्मों से बंधा हुआ है। ऐसा संदेह अथवा भय करने वाले मिथ्यात्वादि भावों का ( उसको) अभाव होने से निःशंक है।
श्रीपुरुषार्थसिद्धयुपाय में कहा है सकलमनेकान्तात्मकमिदमुक्तं वस्तुजातमरिवलज्ञैः ।
किमु सत्यमसत्यं वा न जातु शंकेति कर्तव्या ॥ २३ ॥ सुत्रार्थ - सर्वज्ञों द्वारा वह समस्त जीवादिक पदार्थों का समूह अनेकान्त स्वरूप कहा गया है सोक्या सत्य है या झूठ है? ऐसी शंका कभी नहीं करनी चाहिये। जिनागम में प्रत्येक वस्तु अस्ति-नास्ति, तत्-अतत्, नित्य-अनित्य, एक अनेक, इन चार विरोधी धर्मों (युगलों ) युक्त कही है। भगवान् जाने ये परस्पर विरोधी धर्म एक वस्तु में रह भी सकते हैं या नहीं, ऐसा विचार नहीं आना निशंकित अंग है अर्थात् वस्तु स्वरूप में किसी प्रकार की शंका न होना निःशंकित अंग है।
श्रीरलकरण्डश्रावकाचार में कहा है इदमेवेदृशमेव तत्त्व नान्यन्न चान्यथा ।
इत्यकम्पायसाम्भोवत्सन्मार्गेऽसंशया रुचिः || ११॥ सुत्रार्थ - तत्व यही है और इसी प्रकार है। दूसरा नहीं है और दूसरे प्रकार भी नहीं है। इस प्रकार सच्चे मार्ग में (वस्तु धर्म में) तलवार के पानी के समान निश्चल श्रद्धा होना निशंकित अंग है। भाव उपर्युक्त अनुसार है।
श्रीअमितगतिश्रावकाचार में कहा है विरागिणा सर्वपदार्थवेदिना । जिनेशिले कथिता न वेति यः ॥ करोति शंका न कदापि मानसे ।
नि:शंकितोऽसौ गदितो महामनाः ॥ ७३|| सूत्रार्थ - वीतराग और सब पदार्थों के ज्ञाता जिनेन्द्र देव के ये सब पदार्थ कहे गये हैं। वे हैं या नहीं हैं ? ऐसी शंका को जो कदाचित् मन में नहीं करे वह महान् निःशंकित्त अंग कहा गया है। भाव यह है कि जिनवचन में वा आत्मस्वरूप में संदेह न होना सो निःशंकित अंग है। ऐसा जानना।