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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
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भावार्थ - इन्द्रियादि प्राणों के नाश होने को लोग सदा मरण कहते हैं। किन्तु परमार्थतः आत्मा के इन्द्रियादिक प्राण नहीं है उसके तो ज्ञान प्राण हैं और ज्ञान अविनाशी - उसका नाश नहीं होता; अतः आत्मा को मरण नहीं है। ज्ञानी ऐसा जानता है इसलिये उसे मरण का भय नहीं है; वह तो नि:शंक वर्तता हुआ अपने ज्ञानस्वरूप का निरन्तर अनुभव करता है।
अकस्मात् भय सूत्र १३११ से १३१४ तक ४ अकरमाजातमित्युच्चैराकरिमकभयं स्मृतम् ।
ताथा विद्युदाटीनां पातात्पातोऽसुधारिणाम् ॥ १३११॥ सूत्रार्थ - अकस्मात् उत्पन्न होने वाला महान् भय आकस्मिक भय माना गया है। वह इस प्रकार जैसे बिजली आदि के गिरने से प्राणियों का मरण हो जाता है।
भीतिर्भूयाद्याथा सौस्थ्यं मा भदौस्थ्यं कदापि मे ।
इत्येवं मानसी चिन्ता पर्याकुलितचेतसा ॥ १३१२ ॥ सूत्रार्थ - जैसे स्वस्थपना( अच्छी हालत ) बना रहे, मुझे कभी भी दुर-अवस्थापना( बुरी हालत ) न होवे, इस प्रकार से व्याकुलित मन से होने वाली मानसिक चिन्ता आकस्मिक भय है।
अर्थाटाकरिमकक्षान्तिररित मिथ्यात्वशालिनः ।।
कुतो मोक्षोडरम्य तभीतेनि कैकपदच्युतेः ॥ १३१३॥ सूत्रार्थ - वास्तव में आकस्मिक भय मिथ्यात्व युक्त जीव के होता है। इसके मोक्ष कैसे हो सकती है क्योंकि उस आकस्मिक भय से वह अपने निर्भीक अनुपम पद से (शुद्ध आत्मा से ) च्युत हो रहा है।
निर्भीकैकपटो जीव: स्याटनन्तोऽप्यनादिसात् ।
नास्ति चाकस्मिकं तत्र कुतस्तद्भीरतमिच्छतः ।। १३१४ ।। सूत्रार्थ - जीव मात्र एक निभीक पद में स्थित है, अनन्त है और अनादि से है। उस (अनादि अनन्त निभीक पद) में (स्थित जीव को) अकस्मात् होने वाला कुछ है ही नहीं। अत: उस निर्भीक पद को चाहने वाले सम्यग्दृष्टि के वह आकस्मिक भय कैसे हो सकता है।
भावार्थ - सामान्य स्वभाव त्रिकाल एक रूप है। उसमें आने-जाने वाला कुछ है ही नहीं। अतः सामान्य दृष्टि वाले सम्यग्दृष्टि के अकस्मात् भय नहीं है। पर्याय दृष्टि वाले को प्रत्येक समय आफत ही आफत है। यह अकस्मात भय है।
प्रमाण - इसमें कलश नं. १६० का विषय है। तथा सातों भय का क्रम वही है जो कलशों का है। निशङ्कित अंग का स्वरूप भी वही है जो अमृतचन्द्रजी ने श्रीसमयसार में अर्थ किया है। अतः यह ग्रन्थ उन्हीं का है। भाव ज्यों का त्यों मिलता है। वह इस प्रकार है
अकस्मात् से निर्भयपना एक ज्ञानमनायनंतमचलं सिद्ध किलेतत्स्ततो । यातत्तातदिदं सदैव हि भवेज्ञान द्वितीयोदयः । तन्नाकस्मिकमत्र किंचन भवेत्तभीः कुतो ज्ञानिनो ।
निश्शक सततं स्वयं स सहज ज्ञानं सदा विंदति ॥ १६०॥ कलशार्थ - यह स्वतः सिद्ध ज्ञान एक है, अनादि है, अनन्त है, अचल है। वह जबतक है तब तक सदा ही वही है, उसमें दूसरे का उदय नहीं है। इसलिये इस ज्ञान में आकस्मिक कुछ भी नहीं होता। ऐसा जानने वाले ज्ञानी को अकस्मात् का भय कहाँ से हो सकता है ? वह तो स्वयं निरन्तर निःशंक वर्तता हुआ सहज ज्ञान अनुभव करता है। ___ भावार्थ - 'यदि कुछ अनिर्धारित - अनिष्ट एकाएक उत्पन्न होगा तो' ? ऐसा भय रहना आकस्मिक भय है। ज्ञानी जानता है कि - आत्मा का ज्ञान स्वतः सिद्ध, अनादि, अनन्त, अचल, एक है। उसमें दूसरा कुछ उत्पन्न नहीं हो सकता; इसलिये उसमें कुछ भी अनिर्धारित कहाँ से होगा, अर्थात् अकस्मात् कहाँ से होगा ? ऐसा जानने वाले ज्ञानी को आकस्मिक भय नहीं होता; वह तो निःशंक बर्तता हुआ अपने ज्ञान भाव का निरन्तर अनुभव करता है। इस प्रकार ज्ञानी को सात भय नहीं होते।