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द्वितीय खण्ड/पंचम पुस्तक
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यह है कि सम्यक्त्व की उत्पत्ति के समय में अवश्य ही स्वतः (अपने कारण से ) उस ज्ञानावरण की यथायोग्य अवस्थान्तर होती है (विशिष्ट क्षयोपशम होता है)।
यस्माज्ज्ञानमनित्य स्याच्छास्थस्योययोतावत ।
नित्यं ज्ञानमछमरथे छमस्थस्य च लब्धिमत् ॥ ११७६ ॥ सूत्रार्थ - क्योंकि छद्मस्थ (सम्यग्दृष्टि)का उपयोगात्मक ज्ञान अनित्य होता है और अछद्मस्थ (केवली) में नित्य होता है और छद्मस्थ (सम्यक्त्वी) के लब्धिरूप ज्ञान नित्य रहता है। ऐसा नियम है।
नित्यं सामान्यमाचत्वातु सम्यक्त्वं निर्विशेषतः ।
तत्सिद्धा विषमव्याप्तिः सम्यक्त्वानुभवद्वयोः ॥११७७ ।।। सूत्रार्थ - सम्यक्त्व अपने अवान्तर भेदों की अपेक्षा न करके सामान्य मात्रपने से नित्य है अर्थात् जब तक औपशमिक, क्षायोपशभिक या क्षायिक कोई भी सम्यक्व है तबतक सामान्यपने सम्यग्दृष्टि है और उस सम्यक्त्व और उपयोगात्मक अनुभव-इन दोनों में विषम व्याप्ति सिद्ध होती है। भावार्थ ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है।
सम्यक्त्व का लक्षण स्वात्मानुभूति समाप्त हुआ
तीसरा अवान्तर अधिकार सम्यक्त्व के सहचर लक्षण- 'श्रद्धा-रुचि-प्रतीति-घरण'
सूत्र ११७८ से ११९१ तक १४ अपि सन्ति गुणाः सम्यकश्रद्धानादिविकल्पकाः |
उद्देशो लक्षणं तेषां तत्परीक्षाधनोच्यते ॥ ११७८ ॥ सुत्रार्थ - सच्चा श्रद्धान- आदि विकल्प वाले भी (सम्यक्त्व के) गुण (लक्षण) है। उनका उद्देश, लक्षण और उनकी परीक्षा अब कही जाती है।
भावार्थ - सम्यक्त्व का वास्तविक आत्मभूत लक्षण ( स्वरूप) तो वही है जो सूत्र ११४३ से ११५३ तक निरूपित है। दूसरे नम्बर पर सम्यक्त्व का वह लक्षण (स्वरूप) ठीक है जो आत्मानुभूति रूप है। क्योंकि यह निर्विकल्प ( राग रहित) है और सम्यक्त्व से अविनाभावी है। अब तीसरे नम्बर पर उसके लक्षण जो विकल्पात्मक हैं उनको बताते हैं। ये वास्तव में चारित्र गुण की विभाव पर्याय रूप हैं। अतः इनको चारित्र गुण की पर्याय समझें। दूसरे छयस्थ का ज्ञान ही इन विकल्पों में प्रवृत्त होता है अतः इनको ज्ञान की पर्यायें भी कह देते हैं। ये वास्तव में सम्यक्त्व नहीं पर क्योंकि ये सब बातें विकल्पात्मक होते हुए भी ये विकल्प सम्यग्दृष्टि में ही उत्पन्न होते हैं। अत: इनको भी आरोपसे सम्यग्दर्शन का सहचर लक्षण आगम में तथा लोक में कहने की रूढ़ि है। इनमें एक खास बात यह है कि ये लक्षण होते तो मिथ्यादष्टि में भी हैं पर उसमें आभास रूप है- नकली हैं। इसलिये इनको सम्यक्त्व कहने में व्यभिचार दोष नहीं है। इसको एक दृष्टान्त से स्फुट करके दिखलाते हैं। जैसे देवगुरु का श्रद्धान सम्यग्दृष्टि को भी होता है; मिथ्यादृष्टि को भी होता है। पर अन्तर जमीन-आसमान का है। सम्यग्दृष्टि को वह श्रद्धा स्वलक्षी है और मिथ्यादृष्टि को परलक्षी है। सम्यग्दृष्टि को अपनी आत्मा का स्वात्मानुभूति द्वारा प्रगट प्रत्यक्ष हो गया है। उसके आधार पर उसे ये श्रद्धा जमी है कि जैसा यह आत्मा मुझे अनुभव में आ रहा है जिसको यह पूरा अनुभव में है वह देव है और जिसको मध्यम अनुभव है वह गुरु है। अत: उसकी श्रद्धा को सम्यश्रद्धा-सच्ची श्रद्धा-वास्तविक श्रद्धा कहा है क्य पदार्थ की श्रद्धा की है। यह बात स्वयं श्रीअमृतचन्द्रजी महाराज ने आगे सूत्र १२३० में कही है तथा मिथ्यादृष्टि को आत्म प्रत्यक्ष तो है नहीं। अरहन्तदेव-निर्ग्रन्थ गुरु की परलक्षी श्रद्धा आगम आधार पर है। श्रद्धा तो ऐसी है कि सिर कट जाये पर श्रद्धा में अन्तर नहीं आता जभी तो नवमें ग्रीवक तक जाता है पर यह तो बिना देखे की श्रद्धा है। आत्मा का दर्शन हुआ ही नहीं फिर कैसा देव और कैसा गुरु उस श्रद्धा को श्रीअमृतचन्द्रजी ने आगे सूत्र १९८८ में गधे के सींगवत् कहा है। वास्तव में जो चीज देखी नहीं उसकी श्रद्धा गधे की सींगवत् ही है। अतः ज्ञानियों ने उसे आभासमात्र कहा है। अतः यहाँ से इस पुस्तक के अन्त तक जितने लक्षणों का निरूपण करेंगे उन सबकी यही दशा है। अतः श्री अमृतचन्द्रजी गुरुदेव ने कहा है कि यदि ये लक्षण आत्मानुभूति के सहचर हैं तो ही सच्चे लक्षण हैं। तभी उन्हें