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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
सातासातोदयाददुःखमास्तां स्थूलोपलक्षणात् ।
सर्वकर्मोदयाघात इवाधातश्चिदात्मनः ॥१०१६॥
साता के उदय से दःख होता है यह तो दूर ही रहो क्योंकि यह स्थूल उपलक्षण मात्र है। वास्तव में सब कर्मों के उदय का आयात जीव के ऊपर वज़ की चोट के समान है।
भावार्थ-साता-असाता का तो संयोग जनित ही दुःख है। सब से बड़ा दुःख तो जीव के अनन्त चतुष्टय रूप स्वभाव का घात हो रहा है,यह है। श्री समयसार गा. ४५ तथा १६०)
Om घातः पाले हानेकपालिकाः ।
वालव्याधेर्यथाध्यक्ष पीठ्यन्ते ननु सन्धयः ॥ १०१७ ।। अर्थ-प्रदेशों में घात है यह दृष्टान्त से प्रत्यक्ष है जैसे बाबु रोग के कारण शरीर के जोड़ प्रत्यक्ष पीड़ा करते हैं। ।
भावार्थ-जिस प्रकार वायुरोगीका प्रत्येक जोड़ पीड़ा करता है उसी प्रकार जीवकर्म के उदय में जुड़ कर सब प्रदेशों । में महान दुःखी है और सब प्रदेश जो स्वभाव से अनन्त अतीन्द्रिय सुख स्वरूप है उसके भोग से वंचित हो रहा है।
न हि कर्मोदयः कश्चित् जन्तोर्यः स्यात् सुरवावहः ।
सर्वस्य कर्मणस्तन वैलक्षण्यात् स्वरूपतः || १०१८ ॥ अर्थ-ऐसा कोई भी कर्म उदय नहीं है जो जीव के लिये सुख का स्थान हो। क्योंकि सब ही कर्मों के स्वरूप से ही विपरीतता है ( अर्थात् आत्यस्वभाव से उलटे हैं। आत्मा का स्वभाव सुख ही देने का है। कर्म का स्वभाव दुःख ही देने का है। _भावार्थ-सुख तो जीव को अपने सामान्य स्वभाव में जुड़ने से ही मिलेगा । कर्म में जुड़ने से तो दुःख ही होगा क्योंकि ये दोनों बातें परस्पर विरोधी हैं।
तस्य मन्दोदयात् केचित् जीवा: समनस्का: ववचित ।
सद्वेगमसहमाना रमन्ते विषयेषु च । १०१९।। अर्थ-उस (कर्म) के मन्द उदय से कोई जीव कभी संजी होते हैं तो उसके वेग को न सह कर विषयों में रमते हैं।
भावार्थ-जीव मोह में जुड़ कर इच्छा रूप रोग उत्पन्न करता है और फिर उस रोग के इलाज के कारण भ्रम से विषयों में पतन करके महान् दुःखी होता है ( श्री प्रवचनसार गाथा ६३,७१)।
केचित्तीतोदयाः सन्तो मन्दाक्षा: रचल्वसंज्ञिनः ।
केवलं दु:खवेगार्ता रन्तुं नार्थानपि क्षमा: 11१०२०।। अर्थ- कोई जीव ( कर्म के) तीव्र उदय के कारण थोड़ी इन्द्रियों वाले असंजी होते हैं वे केवल दुःख के वेग से पीडित रहते हैं और विषयों में रमने के लिये भी समर्थ नहीं हैं। ___ भावार्थ-कई जीवों के अनन्त चतुष्टय का पहले ही इतना घात हो रहा है कि इतना ज्ञान का और वीर्य का क्षयोपशम ही नहीं जो विषयों में भी रम सके । आत्मा हीन दशा को प्राप्त है।
यददाख लौकिकी रुटिर्मिीतेस्ता का कथा ।
यत्सुरवं लौकिकी रूढिरसत्सुखं दुःस्वमर्थतः ॥ १०२१।। अर्ध-जिसको दुनिया दुःख कहती है उसमें निर्णय होने से कहना ही क्या अर्थात् वह तो दुःख है ही किन्तु जिसको दुनिया सुख कहती है वह सुख भी वास्तव में दुःख है।
कादाचित्कं न तदुःखं प्रत्युताच्छिन्नधारया ।
सन्निकर्षेषु तेषूच्चैस्तृष्णातङ्कस्य दर्शनात् ॥१०२२ ।। अर्थ-वह दुःख कभी-कभी होने वाला नहीं है किन्तु प्रवाह रूप से निरन्तर होता रहता है। क्योंकि उन विषयों । के सम्बन्ध होने पर अतिशय तृष्णा रूपी रोग देखा जाता है।