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द्वितीय खण्ड/चौथी पुस्तक
२९३ ६-परिग्रह रहित अर्थात् आकाश के समान सदा मूर्तिक पदार्थों के सम्बन्ध रहित निर्लेप ( श्री समयसार गा.७३ की संस्कृत टीका से उद्धत ) अनुभव करता है। भावार्थ १००५ के अन्त में देखिये।
इन्द्रियोपेक्षितानन्तज्ञानदृग्वीर्यमूर्तिकम् ।
अक्षातीतसुरवानन्तस्वाभाविकगुणान्वितम् ॥ १००४ ॥ अर्थ--और प्रदा अपने को इन्द्रियों से रहित अनन्तज्ञान-अनन्तदर्शन-अनन्तवीर्य की मूर्ति और अतीन्द्रिय सुखआदि अनन्त स्वाभाविक गुणों से अन्वित (संयुक्त-तन्मय ) अनुभव करता है। भावार्थ १००५ के अन्त में देखिये।
पश्यन्निति निजात्मान ज्ञानी ज्ञानैकमूर्तिमान् ।
प्रसङ्गादपर चैच्छेदर्थात् सार्थ कृतार्थवत् ॥ १००५ ।। अर्थ-इस प्रकार अपनी आत्मा को अनुभव करता हुआ ज्ञानी यद्यपि ज्ञान की ही एक मूर्ति (ज्ञान का इला) है तो भी प्रसंगवश ( अर्थात् पुरुषार्थ की निर्बलता से कभी-कभी ) परपदार्थ की भी इच्छा कर लेता है ( हो जाती है) पर वास्तव में तो वह सब पदार्थों के प्रति कृतार्थसा ( परम उपेक्षा भाव को रखने वाला-संतुष्ट-कृत्कृत्य) है।
सूत्र १००१ से १००५ तक का दिग्दर्शन ज्ञानी अपने को शुद्ध सामान्य रूप अनुभव करता है और सामान्य का स्वरूप वही है जो सिद्धका स्वरूप है। उस में कर्म के उदय जन्य कोई भी भाव का ग्रहण नहीं होता। उसका स्पष्टीकरण इसप्रकार है:
१.अबद्धभाव-आत्मा ज्ञानावरणादि कर्मों से बंधा हुआ है। सो यह बंध विशेषदृष्टि से है। सामान्यदृष्टि से तो सदा निबंध है। अबद्ध रूप है।
२. अस्पृष्ट भाव-आत्मा मन-वचन-काय रूप नोकर्म वर्गणाओं से छुवा हुआ है। सो यह विशेष दृष्टि से है। सामान्यदष्टि से तो मात्र चैतन्यरूप है। उसमें मन-वचन-काय कहाँ है? वह तो उनसे छता भी नहीं है। जैसे कमल का पत्ता पानी से न बंधा है न छुवा है, उस प्रकार आत्मा न द्रव्यकर्मों से बंधा है न नोकर्मों से छुवा है।
३. अनन्य भाव-आत्मा मनुष्य तिर्यंच देव नारकी रूप नाना प्रकार की असमान जातीय द्रव्यपर्यायों को धारण करता है सो अन्य-अन्य भाव कहलाता है जैसे मिट्टी घड़ा सकोरा चप्पन इत्यादि नानारूप होती है। सामान्य दृष्टि से आत्मा इनसे रहित अन्य रूप है। सदा एकरूप है।
४.नियतभाव-आत्मा ज्ञानावरणीय के निमित्त से मति आदि अनेक क्षायोपशमिक ज्ञानों को धारण करता है। इन ज्ञानों में अविभागप्रतिच्छेदों की हीनाधिकत्ता होने से आत्मा अनियत (अस्थिर) होता है जैसे समुद्र वायु के निमित्त से घटता बढ़ता है। सामान्य दृष्टि से घटने-बढ़ने से रहित अनन्त ज्ञान स्वरूप है। सदा नियत एकरूप है। इसी प्रकार सब गुणों में समझ लेना।
५. अविशेष भाव-जैसे अखण्ड सोने में पीला चिकना भारी इत्यादि गुण भेद की कल्पना होती है उसी प्रकार आत्मा में भेददृष्टि से ज्ञान-दर्शन-चारित्र सुख आदि अनन्त गुण भेद किये जाते हैं। सो यह भेद भाव भी विशेषदृष्टिभेददृष्टि-व्यवहारदृष्टि से है। सामान्य दृष्टि से तो आत्मा सदा अविशेष गुणभेदरहित-अखण्ड है। इसको अविशिष्ट भी कहते हैं।
६. असंयुक्त भाव-जैसे संयोगी दृष्टि से पानी गरमी से संयुक्त है पर स्वभाव दृष्टि से पानी ठण्डा है। उसमें गरमी कहाँ है। उसी प्रकार पर्यायदृष्टि से आत्मा राग-द्वेष-मोह रूप परिणमन करता है पर सामान्य स्वभाव दृष्टि से राग द्वेष मोह से संयुक्त नहीं है। असंयुक्त है। ___ *यह ध्यान रहे कि विशेष में इन भावों को बद्धम्पृष्ट, अन्य-अन्य, अनियत, सविशेष और संयुक्त कहते हैं और सामान्य को अबद्धस्पष्ट अनन्य, नियत, अविशेष और असंयक्त कहते हैं। सो इनका प्रयोग चाहिये। अज्ञानी अपने को विशेष भाव रूप जानता है। ज्ञानी अपने को सामान्य भावरूप जानता है। और उसी प्रकार अनुभव करते हैं।