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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
भावार्ध- ज्ञानचेतना तो स्वभाव रूप है उससे तो बंध नहीं किन्तु संवर निर्जरा होती है। कर्मचेतना से सदैव बन्य होता रहता है।
अस्त्यशुद्धोपलब्धिः सा ज्ञालाभासाच्चिदन्वयात् ।
ल ज्ञानचेतना किन्तु कर्म तत्फलचेतना ॥ ९८१॥ अर्थ-यद्यपि वह अशद्धोपलब्धि ज्ञान के आभास रूप है क्योंकि उसमें चेतन अन्वय रूप से प भी वह ज्ञानचेतना रूप नहीं है किन्तु कर्मचेतना रूप और कर्मफल चेतनारूप है।
भावार्थ-कर्मचेतना और कर्मफल चेतना ज्ञान का ही अज्ञानरूप परिणमन है इसलिये कोई यह कहे कि उसमें ज्ञान तो है ही। बिना ज्ञान तो जड़ हो जायेगा । आचार्य कहते हैं कि ज्ञान का अज्ञान रूप परिणमन होने पर फिर उस का राग-द्वेष-मोह या सुख-दुःख रूप ही संवेदन होता है। ज्ञानरूप बिलकुल नहीं होता। वह ज्ञान नहीं जानाभास है। फिर उसको ज्ञान बिलकुल नहीं कहते किन्तु राग-द्वेष-मोह या सुख-दुःख ही कहते हैं कारण कि संवेदन पर्याय का होता है और पर्याय में वह सर्वथा अज्ञानरूप ही हो रहा है। किसी को अशुद्धोपलब्धि में ज्ञान के संवेदन का भ्रम न हो जाय अतः यह सत्र रचा गया है।
उपसंहार इयं संसारिजीवानां सर्वेषामविशेषतः ।
अस्ति साधारणी वृत्तिर्न स्यात् सम्यक्त्वकारणम् ।। ९८२॥ अर्थ-यह साधारण वृत्ति ( अर्थात् अपने को रागी-द्वेषी-मोही और सुखी-दुःखी मानने रूप परिणति ) सब संसारी जीवों के सम्पूर्णतया पाई जाती है। अत: सम्यक्त्व की कारण नहीं है। (अर्थात् सम्यक्त्व के अस्तित्व की द्योतक नहीं है किन्तु मिथ्यात्व की द्योतक है)।
अब यह कहते हैं कि शुद्ध चेतना सम्यक्दृष्टि के ही है तथा अबंधफलवाली ही है तथा अशुद्ध चेतना मिथ्यादष्टि के ही है तथा बंधफलवाली ही है यह नियम है।
सूत्र ९८३ से ९८५ तक ३ न स्यादात्मोपलब्धिर्वा सम्यग्दर्शनलक्षणम् ।
शुद्धा चेदरित सम्यक्त्वं न चेच्छुद्धा न सा सुदक ॥ ९८३ ।। अर्थ-केवल आत्मोपलब्धि' भी सम्यग्दर्शन का लक्षण नहीं हो सकता किन्तु यदि वह उपलब्धि शुद्ध हो अर्थात् शुद्धोपलब्धि हो) तो सम्यग्दर्शन का लक्षण हो सकता है। यदि वह आत्मोपलब्धि शुद्ध न हो ( अर्थात् अशुद्ध आत्मोपलब्धि हो) तो वह सम्यग्दर्शन का लक्षण नहीं है।
भावार्थ-आत्मोपलब्धि तो सम्यग्दृष्टि के भी होती है, मिथ्यादृष्टि के भी होती है क्योंकि आत्मोपलब्धि के बिना तो जीव जड़ हो जायेगा। उस आत्मोपलब्धि के दो रूप हैं। एक अशुद्धात्मोपलब्धि, एक शुद्धामोपलब्धि क्रमशः एक अज़ानी के होती है, एक ज्ञानी के। जो शुद्धात्मोपलब्धि है वह सम्यक्त्वरूप है। दूसरी मिथ्यात्वरूप है। इसी को अगले दो सूत्रों में शंका-समाधान द्वारा स्पष्ट करते हैं।
शंका मनु चेयमशुद्धैव रयादशुद्धा कथंचन ।
अथ बन्धफला नित्यं किमबन्धफला क्वचित् ॥ ९८४ ॥ शंका-(१)क्या यह आत्मोपलब्धि सर्वथा अशुद्ध ही होती है या कथंचित् अशुद्ध होती है ?(२) क्या वह नित्य बन्ध करने वाली है या कहीं बन्ध करने वाली नहीं है।
भावार्थ-जहाँ आत्मा होगी वहाँ उसकी पर्याय तो होगी ही। आत्मा की पर्याय को ही आत्मोपलब्धि कहते हैं। वह दो प्रकार की होती है एक अशुद्धोपलब्धि रूप पर्याय जो अज्ञानी के होती है। दूसरी शुद्धोपलब्धि रूप पर्याय जो ज्ञानी के होती है। अशुद्धोपलब्धि अशुद्ध ही होती है। उससे बन्ध ही होता है। शुद्धोपलब्धि शुद्ध ही होती है उससे बन्ध नहीं