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आमद (रु.)
खर्च (रु.) ३६,४११.०० ग्रन्थ का मूल्य कम करने के ४१,१००.०० ग्रन्थ छपाई वगैरहा वा खर्च
लिए प्राप्त राशि १२,६६०.०० ग्रन्थ की बिक्री से प्राप्त राशि ९३८.०० पोस्टेज, स्टेशनरी,फोटोस्टेट
वगैरहा का खर्च १६९.०० बैंक ब्याज
७,२०२.०० शेष जो ग्रन्थराज पञ्चाध्यायी में गया । ४९,२४०.०० योग
४९,२४०.०० योग इस सफलता से हमारा उत्साह बढ़ा और फलतः समिति ने ग्रन्थराज पञ्चाध्यायी के प्रकशन कराने का निर्णय ! ले लिया। ग्रन्थ में कुल १९०९(१९१३) श्लोक हैं जो अन्दाजे से ६०० पेज २०४३०४८ साइज़ में आ पायेंगे। पक्की! जिल्द सहित अनुमानित खर्चा १,७०,००० रु. होगा।
मैं दृढ़ विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि जो कार्य होता है वह स्वयम् अपनी तत्समय की योग्यता से होता है, हम करनेवाले बिल्कुल भी नहीं हैं। केवल हिम्मत व पुरुषार्थ करना ही कार्य है जो जैनधर्म का अटल सिद्धान्त है।
इस प्रकाशन के लिए सर्वप्रथम हमने एक अपील हाथ से लिख कर फोटोस्टेट करा कर निकाली और १५-२० । स्थानों पर भेजी। एक-डेढ़ माह के अन्दर ड्राफ्टों या मनीऑर्डरों द्वारा एक लाख रुपये स्वतः ही आ गये। एक घटना तो इस प्रकार है कि एक दानवीर श्री कैलाशचन्द्रजी ने एक हजार रु.का मनीआर्डर भेजा। मेरी अ
चन्द्रमान एक हजार रु. का मनीआर्डर भेजा। मेरी अनुपस्थिति में रुपये ले लिये। जिस स्लिप में संदेश च पता होता है, उसमें सन्देश तो था कि ''पञ्चाध्यायी के मूल्य में कमी करने हेतु भेज रहे हैं", किन्तु मात्र नाम इतना ही था, "कैलाशचन्द्र जैन" किसको रसीद भेजे , कहाँ भेजें , बड़ी समस्या रही। हमने एक पत्र उक्त नाम के परिचित श्री कैलाशचन्द्रजी को डी-२९१, विवेक विहार, देहली लिखा कि क्या आपने एक हजार रू. भेजे हैं, तो उनका तत्काल उत्तर आया कि उन्होंने नहीं भेजे हैं, साथ ही पाँच सौ रू.अपनी ओर से भेज दिए। दूसरे श्री कैलाशचन्द्रजी सेठी जयपुर में हैं उनके पास गये तो उन्होंने भी इन्कार किया और अपनी ओर से ग्यारह सौ रू. ग्रन्थराज के मूल्य कम करने हेतु दे दिए; किन्तु उन एक हजार रु. भेजने वाले का आज तक भी पता नहीं है। इसे ! क्या घस्तु के स्वयं परिणमन की योग्यता नहीं कहेंगे और देखते ही देखते अनुमानित रशि, जो निर्धारित की गई थी,
प्त हो गई। इस प्रकार सभी पण्याथी दानदाता व्यक्तिगत रूप से भी.जिनके नाम संल्मन सूची में अंकित हैं.धन्यवाद के पात्र हैं।
उधर ग्रन्थराज को छपाने के लिए श्री सोहनलालजी जैन, जयपुर प्रिन्टर्स वालों से बातचीत की और उन्होंने बड़ी । लगन से इतने बड़े ग्रन्ध को ५ माह में आपके हाथों में पहुँचा दिया। प्रेस के कर्मत् कर्मचारियों की तत्परता के कारण ही यह सम्भव हो सका, जिसका मुख्य कारण श्री सोहनलालजी का कुशल संचलन है अतः वे धन्यवाद के पात्र हैं। साथ ही श्री अभयकुमारजी बोहरा, जिन्होंने फाइनल प्रूफ देख्ने एवं जो समिति के सदस्य हैं, भी धन्यवाद के पात्र हैं।
इस ग्रन्ध की प्रस्तावना किससे लिखाई जावे, यह प्रश्न आया तो कई विद्वानों को लिखा किन्तु समयाभाव के कारण उन्होंने असमर्थता प्रकट की। डॉ.शीतलचन्दजी, प्राचार्य, श्री दिग. जैन आचार्य संस्कृत कॉलेज, मनिहारों का रास्ता, जयपुर से निवेदन किया तो पहले तो उन्होंने भी समयाभाव की मजबूरी बताई; क्योंकि महाविद्यालय का संचालन, अध्यापन व अन्य कार्यों में व्यस्तता थी। चूँकि पञ्चाध्यायी उनके पढ़ाने का विषय भी था, किन्तु फिर भी सभी टीकाओं का पढ़ना और खासतौर से श्री सरनारामजी की टीका का पढ़न भी जरूरी था, इस पर भी उन्होंने । धर्मभावना से ग्रन्थराज की प्रस्तावना लिखने की स्वीकृति प्रदान की, जिसके लिए समिति उनकी आभारी है।
जैसा कि ऊपर कह आये हैं इस ग्रन्थराज की दो अन्य टीकाएँ भी है जिनमें रह ग्रन्थ दो अध्यायों में विभक्त किया गया है। प्रथम अध्याय में दोनों में ७६८ सूत्र हैं किन्तु दूसरे अध्याय में स्व.श्री मक्खनलालजी की टीका में ११४५ सूत्र हैं