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प्रकाशकीय आदरणीय पाठकगण,
जहाँ 'ग्रन्थराज पञ्चाध्यायी', स्व. पं. श्री सरनारामजी की टीका अध्यात्मचन्द्रिका' सहित, जो सरल भाषा व सुबोध शैली का एक नमूना है, को आपके हाथों में देते हुए हमें हर्ष का अनुभव हो रहा है, वहीं हमारी प्रकाशन समिति के आदरणीय सदस्य वैद्य पं. गम्भीरचन्द्रजी अलीगंज (एटा) का दि. ५.१.१६ को सदैव के लिए हमसे विदा हो जाने का समिति को अत्यन्त दुःख भी है। कुछ समय पहले ही हमसे जुड़ने के बाद उन्होंने इस प्रकाशन के लिए कितना प्रयत्न किया उसका वर्णन नहीं कर सकते।हमें उत्साह देने के लिए जीवन से जूझती अवस्था में भी २० दिन तक अलवर में रहे व मार्गदर्शन किया। उनके दिमाग में यह घर कर गया था कि इस प्रकाशन के लिए करीब २ लाख रुपये की आवश्यकता होगी, अत: उन्होंने जहाँ भी उनकी पहुँच थी वहाँ व्यक्तिगत पत्र लिखे ही थे इसके अलावा स्वयं ने भी अपने घर के प्रत्येक सदस्य से आर्थिक सहयोग करीब ४,००० रुपये का दिलाया। जिन-जिन को उन्होंने लिखा सभी ने उनके आदेश को शिरोधार्य किया। __एक विद्वान व्यक्ति स्वायं आर्थिक सहयोग वीतराग भाव से दे और वह भी श्री सरनारामजी के प्रकाशन के लिए जो आज हमारे बीच में नहीं हैं, कितनी महानता है। उनसे हमने तो कार्य करने की व स्वाध्याय करने की प्रेरणा ली ही है, हम पाठकों से भी निवेदन करेंगे कि वे भी स्वाध्याय व ज्ञानदान करने की उनके वीतराग भाव से प्रेरणा लें। इसमें तो कोई शंका करने की गुंजाइश ही नहीं है कि वे आज भी शान्ति में हैं, क्योंकि उनकी अन्तिम एक माह की संलेखना ने यह सिद्ध कर दिया।
ग्रन्थराज पञ्चाध्यायी के प्रकाशन की योजना कैसे सामने आई. इस पर भी प्रकाश डालना जरूरी है। इससे पहले भी ग्रन्थराज की दो टीकायें और उपलब्ध हैं - (१) आदरणीय श्री मक्खनलालजी की तथा (२) श्री देवकीनन्दनजी की। इन दोनों ही टीकाओं का मैंने तथा भाई अजितप्रसादजी ने साथ-साथ स्वाध्याय किया। इसके बाद यह तीसरी टीका स्व. पं. सरनारामजी की 'अध्यात्म चौद्रिका', जो मेरे पास ७ भागों में मासिक आय टीका के रूप में थी, की स्वाध्याय की। यह मुझे कैसे प्राप्त हुई इस विषय में 'पुरुषार्थ सिद्धिउपाय' के प्रकाशकीय में प्रकाश डाला जा चुका है। ये सातों ही भाग बड़ी जीर्ण अवस्था में थे। इनका कागज भी बहुत हल्का अखबारी कागज था। हमने इनकी अन्य प्रतियाँ तलाश करने का प्रयत्न किया, किन्तु नहीं मिली। इसका स्वाध्याय एक बार करने के बाद पुनः दोनों टीकाओं को सामने रखकर स्वाध्याय किया तो इस टीका का महत्व मालूम हुआ।पंडितजी ने अपने स्वयं के नोट में यह सुझाव दिया था कि इस टीका को अन्य टीकाओं के सामने रखकर पढ़ा जावे। यह टीका सरल, सबोध के साथ-साथ स्थान -स्थान पर इसमें जो स्पष्टीकरण दिया गया है वह उनका अपना मौलिक है। इसके अलावा स्थान-स्थान पर प्रश्न उठाकर हर भाग के अन्त में प्रश्न कर उनका समाधान जो किया है उसने तो विषय की गहनता को समझने में बड़ी ही सरलता कर दी है। आपने सम्यग्दर्शन को खोलने में जो व्याख्या की है वह तो वास्तव में अद्वितीय है। __अच्छी तरह से विचार-विनिमय करने के बाद हम इस निर्णय पर पहुँचे कि इसका प्रकाशन तो अवश्य ही होना चाहिए वरना आधुनिक युग को इस अद्वितीय टीका से आज का व्यक्ति वञ्चित रह जावेगा और एक महान टीका सदा के लिए लुप्त हो जावेगी। किन्तु प्रथम समय में ही हम लोगों की हिम्मत इसका प्रकाशन करने की नहीं हुई क्योंकि इतना द्रव्य कैसे इकट्ठा होगा।अतः यह निर्णय लिया कि पहले 'पुरुषार्थ सिद्धिउपाय' की टीका प्रकाशित कराई जावे
और उसके बाद इसको देखेंगे। अतः प्रथम इन्हीं की 'पुरुषार्थ सिद्धिउपाय' की टीका का प्रकाशन कराया गया जो पाठकगणों के हाथों में पहुँच चुकी है। धर्मप्रेमियों ने पं. सरनारामजी को इतना सम्मान दिया यह तो इसी से स्पष्ट हो जाता है कि २१०० प्रतियों में से प्रेस से ही १६०० प्रतियाँ चली गईं। हमें मात्र ५०० प्रतियाँ ही मिली। उसके आय और व्यय का हिसाब भी हम यहाँ देना उचित समझते हैं। जो निम्न प्रकार है :