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________________ ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी द्वितीय खण्ड / चतुर्थ पुस्तक विशेष वस्तु निरुपण श्लोक न. ७६९ से १९४२ तक प्रकृत विषय पूर्व श्लोक नं. ७ से चालू प्रतिज्ञा - विशेष 'वस्तु' की सिद्धि ७६९-७७० सिद्धं विशेषवद्वस्तु सत्सामान्यं स्वतो यथा । नासिद्धो धातुसंज्ञोऽपि कश्चित्पीतः सिनोऽपरः ॥ ७६९ ॥ अर्थ - जिस प्रकार वस्तु सामान्य सत् रूप स्वयं सिद्ध है उसी प्रकार वही वस्तु विशेष धर्मों वाली भी स्वतः सिद्ध है क्योंकि जिसमें सामान्य धर्म पाया जाता है उसी में तो विशेष धर्म भी पाये जाते हैं। यह बात असिद्ध नहीं है किन्तु प्रसिद्ध दृष्टांत से सिद्ध है जैसे किसी वस्तु की धातु रोजा है यह तो समय है। धातु सामान की अपेक्षा एक होने पर भी कोई धातु पीली होने के कारण सोना कही जाती है तो कोई धातु सफेद होने के कारण चांदी। यह जो उस धातु में पीला धर्म और सफेद धर्म है यह विशेष है। जो धातु है, वही पीली है। जो पीली है, वही धातु है क्योंकि वस्तु सामान्यविशेषात्मक एक ही है। इस प्रकार सत् रूप तो छहों सामान्य हैं किन्तु कोई सत् चेतन होने के कारण जीव है तो कोई सत् अचेतन होने के कारण अजीव है। यह उस वस्तु में विशेषपने का सूचक है। वस्तु सामान्य विशेषात्मक है। भावार्थ- पहली पुस्तक के श्लोक नं. ७ में की गई प्रतिज्ञा के अनुसार ७६८ तक सामान्य वस्तु का निरूपण किया। अब उस वस्तु में क्या-क्या विशेषतायें हैं इसकी सिद्धि करेंगे। भाव यह है कि छहों द्रव्यों में द्रव्यत्व, गुणत्व, पर्यायत्व, उत्पाद व्यय धुवत्व आदि धर्म तो सामान्य रूप से पाया जाता है जो प्रथम पुस्तक में कहा। फिर वे छहों द्रव्य अनेकान्तात्मक है । 'अस्ति नास्ति' आदि चार युगलों से गुम्फित हैं, ये दूसरी पुस्तक में कहा। फिर उन छहों द्रव्यों के परिज्ञान करने के लिये नय प्रमाण निक्षेप तथा इनको प्रयोग पद्धति तीसरी पुस्तक में दिखलाई। किन्तु अब तक जितना विवेचन किया वह छहों द्रव्यों पर बराबर लागू होता है। अब यह समझाना चाहते हैं कि कुछ ऐसी बातें भी हैं जो छहों में नहीं पाई जाती किन्तु कोई बात किसी सत् में पाई जाती है तथा कोई बात किसी सत् में पाई जाती है। कोई बात एक में ही पाई जाती है जैसे चेतनपना जीव सत् में ही है मूर्तिकपना पुद्गल सत् में ही है। कोई बात दो में पाई जाती है जैसे वैभाविक शक्ति जीव पुद्गल में है। कोई बात तीन में पाई जाती है जैसे असंख्यात प्रदेशपना जीव धर्म अधर्म में पाया जाता है। कोई बात पाँच में पाई जाती है जैसे जड़पना जीव को छोड़कर पाँच में पाया जाता है अथवा अमूर्तिकपना पुद्गल को छोड़ कर पाँच में पाया जाता है। इनको कहते हैं विशेष धर्म । जैसे सामान्य वस्तु का जानना परमावश्यक है उसी प्रकार उसकी विशेषताओं का जानना भी परमावश्यक है क्योंकि वस्तु उभयधर्मात्मक है। जो वस्तु सत् सामान्य है वही तो सत् विशेष जीवादि है। अब इस चौथी पुस्तक में सत् की विशेषताओं का ही ज्ञान कराया जायेगा । ऐसा यह ग्रन्थकार का प्रतिज्ञासूत्र है । सो इसी बात को अब ग्रन्थकार स्वयं दूसरे सूत्र में कहेंगे कि जो बात सब में पाई जाये वह सामान्य और जो सबमें न पाई जाकर कुछों में पाई जावे वह विशेष और फिर तीसरे सूत्र से उन विशेषताओं का क्रमशः कथन प्रारम्भ कर देंगे। सामान्य विशेष का लक्षण बहुव्यापकमेवैतत्सामान्यं सदृशत्वतः । अस्त्यल्पव्यापको यस्तु विशेषः सदृशेतरः ॥ ७७० ॥ अर्थ - जो सदृशपने से बहुत में व्यापक हैं (अर्थात् जो धर्म छहों द्रव्यों में पाया जाता है) वह सामान्य धर्म है और जो धर्म विसदृश अल्पव्यापक है ( अर्थात् कुछ में पाया जाता 'सब में नहीं पाया जाता वह विशेष है। जैसे- द्रव्यत्व, गुणत्व, पर्यायत्व, उत्पादव्ययध्रुवत्व अनेकान्तात्मकत्व आदि सब में पाया जाता है यह सामान्य है और चेतनत्वअचेतनत्व, मूर्तत्व-अमूर्तत्व, क्रियात्व, अलोकत्व, वैभाविकत्व, इत्यादि कुछ में पाया जाता है। यह विशेष है । सामान्य कथन समाप्त हुआ।
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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