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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
तन्न यतः सति सति वै व्यतिरेकाभाव एव भवति यथा !
तद्देशसमयभावैरखण्डितत्वात् सतः स्वतः सिद्धात् ॥ ४६१ ॥ अर्थ - ऐसा नहीं है क्योंकि सत् के सत् होने पर, ( उत्पादव्यय-धौव्यात्मक होने पर, परिणमनशील होने पर ) व्यतिरेक का अभाव ही है क्योंकि वह देश समय-समय के परिणामों द्वारा अखण्डित है और वह अखण्डितपना सत् के स्वतः सिद्ध स्वभाव के कारण है।
भावार्थ- ग्रन्थकार कहते हैं कि शंकाकार ने जो व्यतिरेक वाक्य कहा है वह बनता ही नहीं है क्योंकि पदार्थ सदात्मक है अर्थात् उसका सत् लक्षण है और जिसमें उत्पादव्यय- ध्रौव्य होता रहे उसे सत् कहते हैं। जब पदार्थ उत्पादव्यय - ध्रौव्यात्मक सत् रूप है तब उसमें व्यतिरेक सर्वथा ही नहीं बनता। क्योंकि उस देश में प्रतिक्षण अखण्ड रीति से परिणमन होता रहता है और वह पदार्थ का स्वतः सिद्ध स्वभाव है।
पुनः भावार्थं ऐसा कोई समय नहीं जिस समय पदार्थ में परिणमन न होता हो। यदि ऐसा समय कभी माना जाय तो उस समय उस पदार्थ का ही अभाव सिद्ध होगा। क्योंकि उस समय उसमें सत्ता लक्षण ही नहीं घटित होगा। इसलिये शंकाकार का यह कहना किं "जहाँ पर एक देश में परिणमन नहीं होता वहाँ पर सर्व देश में भी नहीं होता" सर्वथा निर्मूल है। इस प्रकार शंकाकार के व्यतिरेक पक्ष का भी खण्डन हो गया। शंकाकार ने जो श्लोक ४६० में अनेक प्रदेशों के कारण अनेकत्व और प्रदेशों के खण्डित न होने के कारण एकत्व कहा था। उसका ऊहापोह पूर्वक विचार यहाँ तक चला और अन्त में उसे लक्षणाभास सिद्ध कर दिया गया। जिनकी ऐसी मान्यता हो वे ध्यान से पढ़ें। अतः क्षेत्र की अपेक्षा एकत्व लक्षण वही निर्दोष है जो श्लोक ४५३-५४ में कहा गया है।
एवं यकेऽपि दूरादपनेतव्या हि लक्षणाभासाः । यदकिंचित्कारित्वादत्रानधिकारिणोऽनुक्ताः ॥ ४७० ॥f
अर्थ- इसी प्रकार और भी जो लक्षणाभास है उन्हें भी दूर से ही छोड़ देना चाहिये क्योंकि उनसे किसी कार्य की सिद्धि नहीं हो पाती। ऐसे अकिञ्चित्कर लक्षणाभासों का यहाँ पर हम उल्लेख भी नहीं करते हैं। उनका प्रयोग करना तो अधिकार से बाहर ही है।
'क्षेत्र से एकत्व' का सार
प्राय: विद्वान् ऐसा अर्थ कर देते हैं कि द्रव्य के प्रदेश अखण्डित हैं इसलिये तो वह एक है और प्रदेश अनेक हैं इसलिए वह अनेक है - जैसे आत्मा के असंख्यात प्रदेश हैं इसलिये तो वह अनेक है और वे प्रदेश अखण्डित हैं इसलिये एक है किन्तु यह ध्यान रहे कि इसको ग्रन्थकार ने तीसरा लक्षणाभास बतलाया है। भाई सोच तो काल द्रव्य और पुद्गल द्रव्य तो एक ही प्रदेशी है उनमें एक अनेक कैसे घटित होगा । अतः वह धारणा गलत है। सत्य अर्थ यह है कि सत् अपने एक देश में जो, जैसा, जिस प्रकार, जितना, स्थित है वह सत् सम्पूर्ण देश में वही, वैसा, उसी प्रकार, उत्तना ही स्थित है जैसे आत्मा के एक देश में जो जैसा, जितना, सत् जिस प्रकार है; वहीं, वैसा, उतना, सत् उसी प्रकार सर्वत्र स्थित है। इसी प्रकार काल के छः कोण हैं। एक कोण में जो, जैसा, जितना सत् जिस प्रकार स्थित है, सब कोण में वही वैसा उतना ही सत् स्थित है। यही क्षेत्र की अपेक्षा सत् के एकत्व में सत्य युक्ति है । ( ४५३-४५४ ) ( २ ) दूसरे जिस प्रकार दीप के प्रकाश में वृद्धि हानि होती है। उस प्रकार सत् क्षेत्र में हानि - वृद्धि नहीं होती है। उसके क्षेत्र में हानिवृद्धि कहना लक्षणाभास है ।
यहाँ यह खास मार्मिक बात है कि शंकाकार रोशनी में हानि-वृद्धि बतलाकर सत् क्षेत्र को अनेक हेतुक एक सिद्ध करना चाहता है। उसका ऐसा आशय है कि द्रव्य के प्रदेश सर्वथा भिन्न हैं। वे जुड़कर एक बने हैं। उनमें पुद्गल स्कंधों की तरह कभी प्रदेश कम भी हो जाते हैं कभी अधिक भी हो जाते हैं। ऐसा वह कहना चाहता है सो ग्रंथकार कहते हैं कि सत् का क्षेत्र न तो रोशनीवत् या स्कन्धवत् अनेकहेतुक एक है और न उसके प्रदेशों में हानि-वृद्धि ही होती है। शंकाकार किसी भी तरह सत् को अनेक सत्ताओं से मिलकर एक सत् ( अनेकहेतुक एक ) सिद्ध करना चाहता है सरे आचार्य कहते हैं कि वह तो स्वभाव से स्वतः सिद्ध एक निश्चित क्षेत्रवाला है। उसको अनेक क्षेत्रवाला मानना