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प्रथम खण्ड/द्वितीय पुस्तक
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रूप है वही तो पर्याय रूप है। जो जीव है वही तो मनुष्य पर्याय रूप है। तो इसलिये इस दृष्टि में स्वभाव और परिणाम व्यस्त रूप न देखकर समस्त रूप-उभय रूप इकट्ठा ही सत् दीखता है।
सत् क्रमवर्ती-अक्रमवती विवक्षा न विरुद्धं कमवर्ति च सदिति तथाऽनादितोचि परिणामि।
अक्रमवर्ति सदित्यपि न विरुद्ध सदैकरूपत्वात् ॥ ४१७॥ अर्थ- क्योंकि सत् अनादि काल से परिणामी है (परिणमन स्वभाव वाला है। इसलिये परिणाम की दृष्टि से वह क्रमवती (क्रमबद्ध परिणमन करने वाला है यह भी विरुद्ध नहीं है और स्वभाव की दृष्टि से वह सदा एक रूप रहता है। अतः सत् अक्रमवर्ती है यह भी विरुद्ध नहीं है।
नोट- इस प्रकार विवक्षाओं के वश से सत् नित्य-अनित्य, उभय-अनुभय, व्यस्त-समस्त, कमवर्ती-अकमी आदि अनेक धर्म वाला होता है और वह भी परस्पर विरुद्ध धर्मों वाला। इस प्रकार वस्तु अनेकधर्मात्मक अर्थात् अनेकान्त रूप सिद्ध हुई। अब आगे इस पर शंकाकार आपत्ति उठाता है। यह शंका जान-बूझकर सत् को एक रूप अर्थात् एकान्त मानने वालों के खण्डन करने के लिये उठवाई गई है।
शंका ४१८ से ४२१ तक - चार इकठे नजु किमिह जगदशरणं विरुद्धधर्मद्वयाधिरोपत्वात् ।
स्वयमपि संशयदोलान्दोलित इव चलितप्रतीतिः स्यात् ॥ ४१८॥ अर्थ - क्या एक द्रव्य में दो विरोधी धर्म रह सकते हैं? यदि ऊपर के कथनानुसार रह सकते हैं तब तो इस जगत में कोई भी शरण नहीं रहेगा। सर्वत्र ही विरुद्ध धर्म उपस्थित रहेंगे।ऐसी विरुद्धता में कोई भी पदार्थ के समझने की इच्छा रखनेवाला जिज्ञासु कुछ निश्चित नहीं कर सकेगा किन्तु वह स्वयं संशयरूपी झूले में झूलने लगेगा जैसे -
शंका चालू इह कश्चिजिज्ञासुर्नित्यं सदिति प्रतीयमानोऽपि ।
सदनित्यमिति विपक्षे सति शल्ये स्यात्कथं हि निःशल्यः ॥४१९॥ अर्थ- कोई जिज्ञास (सत् को समझने का इच्छुक) वह जिस समय सत् को नित्य समाइरेगा, उसी समय उसको नित्यता की विरोधिनी अनित्यता भी उसी में प्रतीत होगी। ऐसी अवस्था में वह न तो वस्तु में नित्यता ही स्थिर कर सकेगा और न अनित्यता ही स्थिर कर सकेगा किन्तु सदा सशल्य-संशयालु बना रहेगा।
शंका चालू इच्छन्नपि सदनित्यं भवति न निश्चितमना जजः कश्चित् ।
जीवदवस्थत्वादिह सल्लित्यं तद्विरोधिनोऽध्यक्षात् || ४२० ॥ अर्थ - उसी प्रकार यदि वह यह समझने लगे कि वस्तु अनित्य ही होती है, तो भी वह निश्चित् विचारवाला नि:संशयी नहीं बन सकेगा, क्योंकि उसी समय अनित्य का विरोधी सत् नित्य है' ऐसी सजीव प्रतीति प्रत्यक्ष होने लगती है।
शंका चालू तत एत दुरधिगम्यो न श्रेयान श्रेयसे ह्यनेकान्तः।
अध्यात्ममुरवदोषात् सव्यभिचारो यतो चिरादिति चेत् ॥ ४२१॥ अर्थ - इन बातों से जाना जाता है कि अनेकान्त (स्याद्वाद) बहुत ही कठिन है अर्थात् सब कोई इसका पार नहीं पा सकते हैं । इसलिये यह अच्छा नहीं है क्योंकि सहसा इससे कल्याण नहीं होता है। दूसरी बात यह भी है कि यह अनेकान्त स्वयं ही दोषी बन जाता है। क्योंकि जो कुछ भी यह कहता है उसी समय उसका व्यभिचार-निरोध खड़ा हो जाता है। इसलिये यह अनेकान्त ठीक नहीं है यदि ऐसा कहो तो -
नोट - यहाँ तक यह शंका सर्वथा एकान्तमतों का खण्डन करने के लिये उठाई गई है।