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________________ प्रथम खण्ड/द्वितीय पुस्तक ९३ भी मान लिया जाय तो भी काम नहीं चल सकता, क्योंकि जिस प्रकार वाक्य विवक्षा के अभाव में केवल पद पक्ष किसी प्रयोजन की सिद्धि में समर्थ नहीं है। उसी प्रकार प्रमाण के अभाव में केवल नयपक्ष भी अपनी रक्षा में समर्थ नहीं है। अर्थात् प्रमाण के अभाव में केवल नयपक्ष भी कार्यकारी नहीं है ॥३६१॥ यदि संस्कार वश पदों में वाक्य प्रतीति मानी जाय तोयह मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा कथन करने पर नयों का अभाव होकर केवल प्रमाण के कथन करने की आपत्ति आती है जिसे रोकना दुर्निवार है ॥३६२॥ यदि कहा जाय कि केवल प्रमाणपक्ष मान लिया जाय तो ऐसा मानना भी ठीक नहीं है। क्योंकि ऐसा मानने पर दो ऐसे दूषण आते हैं जिनका रोकना दुर्वार हो जाता है। उक्त मान्यता के अनुसार एक तो नयपक्ष का सर्वथा अभाव प्राप्त होता है और दूसरे ध्वनि कमवती होती है। यह जो हेतु दिया गया था वह समीचीन हेतु नहीं ठहरता ॥ ३६३॥ विशेषार्थ - पहले विविध दृष्टान्तों द्वारा सत् और परिणाम के विषय में आशंका कर आये हैं। उन दृष्टान्तों में एक वर्णपंक्ति का भी दृष्टान्त दे आये हैं। इस द्वारा यह आशंका प्रकट की गई है कि जिस प्रकार क, ख आदि वर्ण स्वतन्त्ररूप से एक साथ रहते हैं, किन्तु उनका ग्रहण क्रम से होता है, उसी प्रकार क्या सत् और परिणाम का स्वतन्त्ररूप से एक साथ रहना मानकर उनका ग्रहण क्रम से माना जाय। इस आशंका का ग्रन्थकर्ता ने जो समाधान किया है उसका भाव यह है कि सामान्य और विशेष ये स्वतन्त्र दो न होकर एक अनिर्वचनीय वस्तु को देखने के दो प्रकार हैं जो परस्पर सापेक्षा प्रमााान करनादेशीता है, यह सत और परिणाम उभयरूप वस्त को ही ग्रहण करता है। प्रकृत में वर्णपंक्ति के दृष्टान्त द्वारा शंकाकार ने सत् और परिणाम को सर्वथा स्वतन्त्र सिद्ध करने का प्रयत्न किया है अतः यह दृष्टान्त यहाँ लागू नहीं होता। यदि प्रमाण के अभाव में केवल नयपक्ष स्वीकार किया जाता है तो ऐसा करना युक्त नहीं है, क्योंकि जिस प्रकार वाक्य के अभाव में केबल पद कार्यकारी नहीं होता है उसी प्रकार प्रमाण के अभाव में नयपपक्ष भी कार्यकारी नहीं है। आशय यह है कि नाना पदों के मिलने से एक वाक्य बनता है और तब जाकर वाक्य से अर्थबोध होता है। इसलिये वाक्य की अपेक्षा से ही प्रत्येक पद कुछ न कुछ अर्थ रखनेवाले कहे जाते हैं। यदि कोई 'नमः श्रीवर्धमानाय'इत्यादि वाक्य कोन मानकर नमः'और' श्रीवर्धमानाय' इन पदों को भिन्न-भिन्नही मानें तो'श्री वर्धमान को नमस्कार हो' इस अर्थ की सिद्धि नहीं हो सकती है। इसी प्रकार वाक्य पक्ष के अभाव में कारक अर्थात् विभक्ति का भी अर्थ नहीं बन सकता है। वैसे ही प्रमाण के अभाव में नयपक्ष भी कार्यकारी नहीं है। यदि कहा जाय कि जैसे वाक्य का उच्चारण नहीं करके भी केवल संस्कार वश पदों में वाक्यार्थ की प्रतीति हो जाती है। वैसे ही प्रमाण के अभाव में नयों से प्रमाण की प्रतीति हो जायेगी सो यह कहना भी ठीक नहीं है। क्योंकि ऐसा मानने पर यावत् कथन प्रमाणरूप प्राप्त होता है तब नय का कोई स्थान ही नहीं रहता। किन्तु यदि इस दृष्टिकोण को समीचीन मान लिया जाय तो दो महान् दूषण आते हैं। एक तो नयपक्ष का सर्वथा अभाव हो जाता है और दूसरे नयपक्ष के अभाव में क्रम नहीं बनता जिससे ध्वनि अहेतुक ठहरती है। यतः ये दोष न प्राप्त होवें अतः सत और परिणाम को क,ख आदि वर्गों के समान सर्वथा निरपेक्ष न मानकर परस्पर सापेक्ष ही मानना चाहिये। विन्ध्य और हिमाचल भी दृष्टान्ताभास है विन्ध्यहिमाचलयुग्मं दृष्टान्तो नेष्टसाधनायालम् । तदनेकत्वे नियमादिच्छानर्थक्यतोऽविवक्षश्च ॥ ३६४॥ अर्थ - विध्याचल और हिमाचल इन दोनों पर्वतों का दृष्टान्त भी इष्ट वस्तु की सिद्धि करने के लिये समर्थ नहीं है, क्योंकि जब ये नियम से अनेक हैं तब इनमें गौण मुख्य भाव की कल्पना करना निरर्थक है ॥ ३६४॥ विशेषार्थ - प्रकृत में सत् और परिणाम में कथंचित् भेद स्वीकार किया गया है। किन्तु विन्ध्याचल और हिमाचल ये सर्वथा स्वतन्त्र दो हैं, अत: सत् और परिणाम की सिद्धि के लिये विन्ध्याचल और हिमाचल का दृष्टान्त भी उपयोगी नहीं है ॥३६४॥
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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