________________
११. शर-संधान
यह दोडवेट्ट का पर्वत, जिसे तुम लोग 'विन्ध्यगिरि' कहते हो, उन दिनों एकदम सुना और निष्प्राण-सा था । प्रातः काल या साँझ के धुंधलके
कभी कृष्ण - मृगों का समूह, या चंवरी गायों की गोट अवश्य उस पर विचरती दिखाई दे जाती थी । कभी-कभी रात्रि में वनराज की दहाड़ से भी उसकी नीरवता भंग होती थी । मेरे पृष्ठ भाग पर मन्दिरों और देवायतनों की संख्या में निरन्तर वृद्धि हो रही थी । इन देवायतनों का आश्रय लेकर, तप-साधना करनेवाले साधु भी, कभी-कभी नीरव स्थान की आकांक्षा में दोडुवे की किसी कन्दरा में, या शैलाश्रय में, ध्यान अथवा पठन-पाठन करने वहाँ चले जाते थे । बस, इतना ही स्पन्दन, इतना ही जीवन संचार आता था दोडवेट्ट के अनुभव में, अन्यथा एक चिर नीरवता, एक अन्तहीन निस्तब्धता ही उसकी नियति थी ।
. कभी-कभी मुझे अपने इस सहोदर के भाग्य पर करुणा उपजती थी । पतित-पावन जिनालयों को अपने मस्तक पर धारण करने के गौरव की जब-जब मुझे अनुभूति होती, तब-तब प्राय: मैं दोडवेट्ट की बात विचारने लगता । क्या कभी इसके भी दिन फिरेंगे ? क्या कभी आयेंगे वे सौन्दर्यस्रष्टा, जो मेरे इस सहोदर का भी शृंगार करेंगे? मुझे भासता था कि कभी न कभी अवश्य आयेंगे वे महाभाग, जिनकी कल्पना, इस अनगढ़ विराटता को रूपाकार के साँचे में ढाल देगी। जिनका पुरुषार्थ मेरे ही समक्ष हतप्रभ होते हुए, मेरे इस अग्रज को, वरिष्ठता की यथार्थ गरिमा प्रदान करके ही मानेगा । जिनकी कला - साधना इस रूक्ष और निष्प्राण पाषाण में सुन्दरता, मृदुता और सजीवता की प्रतिष्ठा करके, अमर हो जाने के लिए तड़प उठेगी । नेमिचन्द्राचार्य की योजना सुनकर आज मैं बहुत आश्वस्त हुआ। मुझे बड़ी प्रसन्नता थी कि अब मेरी तरह मेरे उस सहो