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'गोमटेश गाथा' की एक विशेषता यह है कि नीरज जी ने इतिहास और संस्कृति की विपुल सामग्री के सागर में से मोती चुनकर साहित्य के लिए कण्ठहार तैयार कर दिया है । पुस्तक का प्रत्येक अध्याय जानकारी कोष है, किन्तु कहीं भी इसे बोझ नहीं बनने दिया गया है।
प्रसंग के अनुसार पौराणिक गाथा और इतिहास के तथ्यों की विवेचना है। कालचक्र का प्रवर्तन, भोगभूमि का वैभव और उसका ह्रास, उसके उपरांत कर्मभूमि का उद्भव व विकास, श्रु तज्ञान की परम्परा, आचार्य भद्रबाहु और सम्राट् चन्द्रगुप्त के ऐतिहासिक तथ्यों से लेकर सिद्धान्तचक्रवर्ती नेमिचन्द्राचार्य तथा भगवान् बाहुबली की मूर्ति के प्रतिष्ठापक प्रतापी चामुण्डराय के इतिवृत्त तक, जो कुछ जानने योग्य है, सब सार रूप में इस पुस्तक में आ गया है।
विन्ध्यगिरि के शिखर पर प्रतिष्ठित विशाल खड्गासन मूर्तिका पुस्तक में जो अलौकिक दृश्य अंकित किया गया है, उसके अनुरूप भाव और भाषा एक कविहृदय ही पा सकता है । इतिहास के तथ्यों को यथासम्भव सुरक्षित रखते हुए, जहाँ भी कथानक के चित्रण ने भावनाओं को प्रेरित किया है वहाँ नीरज जी की कल्पना मुखर हो गयी है । तथ्यों का सपाट वर्णन इतिहास कर सकता है जहाँ आकृति का ढांचा खड़ा कर देने से काम चल जाता है, किन्तु साहित्य की रचना तब सम्पूर्ण होती है जब ढांचे में प्राणों का स्पन्दन होने लगे। ऐसा स्पन्दन लेखक ने स्वयं तो अनुभव किया ही है, पाठकों तक भी उसे पहुँचाया है। भगवान् बाहुबली की मूर्ति के दर्शनों के लिए पोदनपुर की जिस यात्रा की व्यवस्था चामुण्डराय ने अपनी माता की अभिलाषा पूर्ति के लिए की थी, उस यात्रा का विवरण कहीं भी पोथियों में नहीं मिलता। यात्रियों में माता काललदेवी, उनके गुरु आचार्य नेमिचन्द्र, पुत्र चामुण्डराय और चामुण्ड राय की पत्नी अजितादेवी की नामावलि सहजता से सोची जा सकती है। किन्तु संघ की यात्रा को सजीव और सम्पूर्ण बनाने के लिए नीरज जी ने चामुण्डराय के पुत्र जिनदेवन, पुत्रवधु सरस्वती और पौत्र सौरभ को रूपांकित किया है । एक भरा पूरा राज परिवार श्रावकोचित मर्यादाओं के सारे आयोजनों को, धर्म गुरुओं के निर्देशन में, सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक चरित्र की महिमा से मण्डित करता है, नीरजजी की यह कल्पना दृष्टि, कथा को नया आयाम देती है। साहित्यिक लेखन प्रेरक भी हो, 'गोमटेश गाथा' इसका उदाहरण है। ___अन्त के कई अध्यायों में कथा का विस्तार कितना आवश्यक था, इसमें मतभेद हो सकता है, किन्तु लेखक का यह आग्रह स्पष्ट दिखाई देता है कि जिस विशाल परिवेश में गोमटेश स्वामी की मूर्ति का निर्माण हो रहा है, जहाँ जिनदेवन
और सरस्वती अपने अपने दायित्वों के निर्वाह में तन-मन से लगे हुए हैं, उस परिवेश को जीवन्तता दी जाये। इसके लिए शिल्पी के (जिसे नीरजजी ने अरिष्टनेमि