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तुमने सुना होगा, एक बार जब नेमिचन्द्राचार्य महाराज षट्खण्डागम ग्रन्थ का स्वाध्याय कर रहे थे, तभी चामुण्डराय उनके दर्शनार्थ उपस्थित हुए। उन्हें देखते ही आचार्य महाराज ने ताड़पत्रों की वह पोथी बाँधकर रख दी। इतना भर नहीं, चामुण्डराय के पूछने पर उन्होंने उसका कारण भी स्पष्ट कर दिया___ 'यह सिद्धान्त ग्रन्थ अत्यन्त क्लिष्ट है। तुम्हारे भीतर अभी उसके अवलोकन की पात्रता नहीं है।'
चामुण्डराय का मन निर्मल अभिप्राय से ओतप्रोत था और जिनवाणी के अमृत के लिए उनकी पिपासा अनन्त थी। उन्होंने तत्काल निवेदन किया
'सिद्धान्त का वह सार, मेरे जैसे जड़ बुद्धि जिज्ञासुओं के अनुग्रह के लिए, सरल शब्दों में उपलब्ध करा दीजिये महाराज !' .
आचार्यश्री ने अनुकम्पापूर्वक उसी समय शिष्य के इस अनुरोध को स्वीकार कर लिया। अपने स्वाध्याय के साथ ही उन्होंने षट्खण्डागम के विषय का संक्षिप्त लेखन भी प्रारम्भ कर दिया। इस ग्रन्थ का नाम रखा गया 'पचसंग्रह' । 'गोमट' चामुण्डराय का ही एक नाम था, इसी कारण कालान्तर में यह ग्रन्थ 'गोम्मटसार' नाम से प्रसिद्ध हुआ। चामुण्डराय ने इस महान् ग्रन्थ की एक विशाल टीका कन्नड़ में लिखी थी जिसे 'वीर-मार्तण्डी टीका' कहा गया है। __चामुण्डराय अतिशय पुण्यशाली महापुरुष था। पुण्यकर्मों की उत्तम प्रकृतियाँ, उसकी सत्ता में, उत्कृष्ट अनुभाग शक्ति के साथ विद्यमान थीं। यही कारण था कि जीवन भर सफलता उसकी अनुगामिनी रही। जिस कार्य का भी उसने समारम्भ किया, वह कार्य निर्विघ्न सम्पन्न हुआ और चामुण्डराय के लिए यश और ख्याति का कारण बनता रहा। उसने अपने आग्रह से सिद्धान्तचक्रवर्ती आचार्य नेमिचन्द्र महाराज के द्वारा ‘गोम्मटसार' और 'त्रिलोकसार' जैसे ग्रन्थों की रचना करायी। 'चामुण्डराय-पुराण' नाम से उसने कन्नड़ भाषा का प्रथम वृत्त ग्रन्थ लिखा। संस्कृत में 'चारित्रसार' जैसे ग्रन्थों की रचना की। कन्नड़ के अनेक कवियों कलाकारों को आश्रय देकर उसने अनगिनते काव्यों और कलाकृतियों की रचना में महत्वपूर्ण योगदान किया। वह स्वयं भी अच्छा कवि और कुशल कलामर्मज्ञ था। गोमटेश भगवान् की इस प्रतिमा का निर्माण कराकर तो चामुण्डराय ने अपने जीवन भर की सफलताओं के प्रासाद पर स्वर्ण कलश ही चढ़ा दिया।
धर्म की निस्पृह प्रभावना और गुरुभक्ति जैसी विशेषताओं के
गोमटेश-गाथा / ३३