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नेमिचन्द्राचार्य के आशीर्वाद से, भक्तिचक्रवर्ती चामुण्डराय की प्रेरणा से, शिल्पचक्रवर्ती रूपकारने मूर्तिमान करके, काललदेवी आदि भक्तों के समूह को प्रथम दर्शन के अमृत जल से अभिसिंचित कर दिया था ।
शस्य-श्यामला धरा को आप्लावित करनेवाली जल वाहिनी जैसे गिरि-खण्डों से निकलती हैं, वैसे ही कर्नाटक के श्रवणबेलगोल में स्थित, अपने स्मृति कोष में सुदूर अतीत के वर्तमान सहस्राब्दी महोत्सव पर्यन्त के समस्त घटनाचक्र को सुरक्षित रखनेवाले चन्द्रगिरि के मुख से श्रद्धालु पथिक के प्रति वात्सल्य रस से ओतप्रोत सम्बोधन कराते हुए, गोमटेश भगवान की उद्भव गाथा और अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहुस्वामी तथा अंतिम मुकुटबद्ध नरेन्द्र चन्द्रगुप्त ( प्रभाचन्द्र मुनिराज) की पावन गौरव गाथा रूपी त्रिवेणी को, तपःपूत धवल कीर्तिमान् नेमिचन्द्राचार्य, सम्यक्त्वरत्नाकर चामुण्डराय परिवार एवं महासती अत्ति मब्बे आदि की पुण्य गाथा रूपी उप-धाराओं को सम्मिलित करके, ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर सुचारू रीत्या अतीव रोचक ढंग से लेखक ने प्रवाहित कराई है । आख्यान की यह पुण्य - वाहिनी, धवल यश प्राप्त भगवान् बाहुबली की अद्वितीय मनोहर प्रतिमा सदृश, भव्यजन रूपी कृषकों को युग-युग तक, धर्म रूपी उत्तम फल प्रदान करती रहेगी ।
इस गोमटेश - गाथा में कहीं अकम्प और निश्चल गोमटेश्वर की महिमा का अपूर्व दर्शन होता है, कहीं भद्रबाहु स्वामी की परम समाधि रूपी विजयपताका की उपलब्धि का दृश्य दिखाई देता है, कहीं चन्द्रगुप्त नरेन्द्र को आत्म- द्रव्य की राजधानी में, आत्मगुण रूपी असंख्य प्रजा और रत्नत्रय धर्म रूपी अक्षय कोष के उपभोग का आधिपत्य मिलता है, कहीं दीक्षागुरु भद्रबाहु स्वामी की वैयावृत्त का एकाधिकार अनुभव में आता है । कहीं उस लोकोत्तर प्रतिमा के उद्भावन के लिए नेमिचन्द्राचार्य का गहन चिंतन और निर्देश परामर्श की विलक्षणता अनुभूत्य है, कहीं स्तुति के छन्दों में उनकी भाव-विह्वलता का आस्वादन होता है ।
इस गाथा में कहीं उदारमना चामुण्डराय की अपूर्व मातृभक्ति, अनुकरणीय दानवृत्ति और अतिशय जिनभक्ति का चित्ताकर्षक दृश्य सामने आ जाता है, कहीं पण्डिताचार्य की कार्यकुशलता एवं राग-विराग के युद्ध में विराग की विजय का सुन्दर स्मरणीय चित्रण है । कहीं तृष्णा नागिन की विषवेदना से संतप्त शिल्पकार का मनस्ताप और मातृ-वचन के गरुड़मणि द्वारा विष वमन के उपरान्त उसकी
भूतपूर्व का तृप्ति का, सुखानुभूति का, हृदयस्पर्शी चित्रण है, कहीं जिनदेवन का अदम्य उत्साह, कार्यक्षमता एवं कर्त्तव्य निष्ठा का अनुकरणीय कथन है । कहीं काललदेवी की आंतरिक जिन भक्ति के साथ युक्ति और शक्ति का सहज गठबंधन दृश्यमान है, कहीं अजितादेवी की गार्हस्थिक निपुणता एवं सासु के प्रति कर्तव्य पालन का अनुकरणीय उदाहरण है । कहीं योग्य गृहिणी सरस्वती देवी की
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