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आर्यिका विशुद्धमती माताजी का आशीर्वचन
अन्तर्वनि
जिस प्रकार द्रव्य प्राण और भाव प्राण के सामंजस्य का नाम जीवन है, उसी प्रकार, द्रव्य और भाव दोनों की सम्यक् अभिव्यंजना का नाम कला है। सत् का संस्पर्श लेकर चलनेवाली कल्पना ही यथार्थ कला होती है। कोरी कल्पना कला नहीं कही जा सकती।
देहयष्टि जीर्ण होते हुए भी जैसे वृद्ध पुरुष की चेतना यथार्थ और अपने आप में परिपूर्ण होती है, उसी प्रकार जैन वाङमय की पौराणिक कथाएँ पुरातन होकर भी जीवन्त और परिपूर्ण हैं। योगीश्वर गोमटेश बाहुबली की गौरव-गाथा, ऐसी ही एक अति प्राचीन कथा है, जिसकी जीवन्तता आज भी निर्विवाद है।
जिस प्रकार एक चतुर शिल्पकार, पूर्व भवों के संस्कार एवं परम्परा से प्राप्त अनुभवों के आधार पर, अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति, अडिग संकल्प, एकान्त चिन्तन, सदाचार, मिताहार, निर्लोभ वृत्ति, अहंकार निवृत्ति और मन-वचन तथा इन्द्रियों के यथासाध्य संयम की साधना के बल पर, दुर्भेद्य शिलाखण्डों में भी, अपने साध्य को साकार कर लेता है, उसी प्रकार साहित्यकार भी पूर्व पुण्य के योग से, दृढ़ इच्छाशक्ति और आन्तरिक श्रद्धा-भक्ति के बल पर पौराणिक कथाओं के शब्दपात्र में भावाभिव्यंजना भरकर, उन्हें जीवन्त सदृश सुग्राह्य और सुश्रुत बना देता है। __ श्री नीरज जैन साहित्याकाश के एक ऐसे ही आभावान नक्षत्र हैं। उनकी सशक्त लेखनी ने सुललित भाषा, सुन्दर वाक्य-विन्यास, मधुर संबोधन एवं अनुपम काव्य सौष्ठव के माध्यम से, दीर्घकाल पूर्व ज्योतिर्मान, भगवान् बाहुबली की पुण्यकथा की शीतल धारा से, हृदय पटल को वैसा ही अभिसिंचित कर दिया है जैसा पोदनपुर के वन प्रान्त में षट्खण्डचक्रवर्ती भरत द्वारा स्थापित, लतागुल्मों से आवेष्टित और विषधर समूहों से मण्डित, योगचक्रवर्ती बाहुबली की अनुकृति को श्रवणबेलगोल के विध्य शिखर पर, सहस्र वर्ष पूर्व, सिद्धान्तचक्रवर्ती