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सूखा ही रह जाता था।
पहले कुछ समय तक तो यह विलक्षता महामात्य को दृष्टि में आयी ही नहीं। कुछ समय तक पण्डिताचार्य भी प्रतीक्षा करते रहे कि, इस कलश से नहीं तो अगले कलश से, अभिषेक पूर्ण होगा, परन्तु अधिक देर तक वे इस व्यवधान को सह नहीं पाये । मन्त्रोच्चार रोकते हुए, प्रदक्षिणा में घूम-घूम कर उन्होंने अवलोकन किया। वे जानना चाहते थे कि दुग्ध की वह धार कहाँ विलीन हो जाती है। महामात्य और जिनदेवन भी मंच से उतरकर अत्यन्त चिन्तित और विस्मित, इस रहस्य के अनुसन्धान में चारों ओर से मूर्ति को देख रहे थे। इन लोगों के मन को समाधान दे सके, ऐसा कोई सूत्र वहाँ मिला नहीं।
पण्डिताचार्य ने सूक्ष्मता से निरीक्षण किया। शासन देवता को हविष्य प्रदान किया जा चुका था। इन्द्र, वरुण, मरुत और अग्नि, अपनी समिधा प्राप्त कर चुके थे। अष्ट दिक्पालों की और कुष्माण्डिनी महादेवी की स्थापना यथाविधि हो चुकी थी। अनुष्ठान में कोई प्रमाद, विघ्न का कोई कारण, उन्हें अब वहाँ दिखाई नहीं दे रहा था। ___ मन्त्रोच्चार में कहीं कोई प्रमाद हुआ है, अथवा अभिषेक के विधिविधान में कोई अशुद्धि रह गयी है, ऐसा सोचकर, अभिषेक करनेवाले सभी जनों ने स्नान करके पुनः शुद्ध वस्त्र धारण किये । दुग्ध से भरकर वे कलश पुनः ऊपर पहुँचाये गये और सावधानीपूर्वक अनुष्ठान के विधिविधान पूरे करते हुए, पुनः अभिषेक प्रारम्भ हुआ। विधि-विधान अव पूर्णतः निर्दोष था, परन्तु शतशः कलशों के पुनः रीत जाने पर भी, अभिषेक के दुग्ध से भगवान् के चरणों का प्रक्षाल इस बार भी नहीं हो पाया। लगता था यह अभिषेक अब कभी पूरा नहीं हो पायेगा। चामुण्डराय की कीर्ति-पताका जो आज झुकी जा रही है, सो अब झुकी ही रहेगी।
काललदेवी ने इस घटना को धर्म की प्रभावना में उपसर्ग मानकर, अभिषेक सम्पन्न होने तक के लिए, अन्न जल का त्याग कर दिया। वे माला लेकर वहीं शान्तिनाथ भगवान् के स्मरण में एकाग्र हो गयीं। उनके नेत्रों से अश्रु ढरक रहे थे।
महामात्य अत्यन्त कातर और अधीर होकर नेमिचन्द्राचार्य की ओर देख रहे थे। अजितादेवी और सरस्वती की आँखों में अश्रु छलक आये। पण्डिताचार्य और जिनदेवन भी व्यग्र हो उठे। उन्होंने आचार्य महाराज से उपाय पूछा। नेमिचन्द्राचार्य महाराज देख रहे थे कि अभिषेक का विधि-विधान त्रुटि रहित है। मन्त्रोच्चार निर्दोष है। उन्होंने सबको धैर्यपूर्वक भगवान् का गुणानुवाद करने का परामर्श दिया। १८० / गोमटेश-गाथा