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के लिए उनमें इन्द्र और इन्द्राणी की कल्पना की गयी थी । ऊपर मंच पर गोमटेश के शिरोभाग के पास दाहिनी ओर चामुण्डराय दम्पती और बायीं ओर उनके पुत्र तथा पुत्र वधू अभिषेक के लिए खड़े हुए।
प्रतिष्ठा के विधि-विधान आचार्यश्री के सान्निध्य में सम्पन्न हुए, तत्पश्चात् पण्डिताचार्य के द्वारा पवित्र मन्त्रोच्चार के साथ ही उन कलशों की दुग्ध-धारा, गोमटेश के मस्तक पर गिरकर उनके शरीर पर प्रवाहित होने लगी । मन्त्रों की लयबद्ध मंगल ध्वनि के साथ समवेत होती हुई, भगवान् के मस्तक पर ढरते कलशों की ध्वनि कानों को अत्यन्त प्रिय लगती थी । अभिषेक का वह दृश्य अनुपम ही था ।
तब के बाहुबली
तब तक विन्ध्यगिरि के शिखर पर बाहुबली की प्रतिमा और त्यागद ब्रह्मदेव स्तम्भ का ही निर्माण हुआ था । बाहुबली की परिक्रमा में चौबीसी की वेदिकाएँ, वह प्रवेश द्वार, मण्डप, पौर, परकोटा और प्राचीरें, जो आज तुम वहाँ देख रहे हो, कुछ भी उस समय वहाँ नहीं था । किसी दूसरे जिनालय के निर्माण का प्रारम्भ उस पर्वत पर तब तक नहीं हुआ था । ऊपर पर्वत पर जाने के लिए सीढ़ियोंवाला यह मार्ग भी उस समय नहीं
था ।
बाहुबली भगवान् तब विन्ध्यगिरि के शिखर पर, अप्रच्छन्न ही विराजमान थे । तुमने तो यहाँ से वह सम्पूर्ण छवि देखी ही नहीं पथिक ! तुम्हारे अत्यधिक सावधान और दूरदर्शी पूर्वजों ने, थोड़े ही काल में गोमटेश के चारों ओर पौर-पगारें, तोरण और प्राचीरें खड़ी करके, मुझे भी उस छवि के दर्शन - सुख से सदा के लिए वंचित कर दिया । तुम तो आज भी समक्ष जाकर उनके समग्र दर्शन का सौभाग्य प्राप्त कर लेते हो, पर मुझे तो अब उनकी मुख छवि के दर्शन से ही सन्तोष करना पड़ता है । आकस्मिक व्यवधान
बड़े उत्साह के साथ महामात्य और उनके कुटुम्बीजनों ने अभिषेक प्रारम्भ किया था, पर, सहसा जनसमूह को विस्मित कर जानेवाली एक विचित्र घटना वहाँ घट गयी । भगवान् के मस्तक पर धारा छोड़ने में कलश के कलश रीतते गये, परन्तु पूरी प्रतिमा का अभिषेक सम्पन्न नहीं हो पाया । आश्चर्य की बात थी कि भगवान् के चरणों तक पहुँचने के पूर्व ही, दुग्ध की वह धारा न जाने कहाँ विलीन हो जाती थी । गोमटेश घुटनों तक तो दुग्धस्नात दिखाई देते थे, परन्तु उनका उससे नीचे का भाग, सूखा का
गोमटेश - गाथा / १७६