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३५. प्रथम वन्दना
'मूर्ति का निर्माण सम्पन्न हुआ।' 'बाहुबली की प्रतिमा निष्पन्न हो गयी।' 'कल प्रातः प्रथम वन्दना होगी।'
थोड़े ही समय में यह समाचार, दूर-दूर ग्रामों जनपदों तक पहुँच गया। आचार्य महाराज ने प्रातः शुभ-मुहूर्त में बाहुबली के प्रथम दर्शन का योग घोषित किया था। रात से ही यहाँ लोगों का एकत्र होना प्रारम्भ हो गया। जो जहाँ था, अपने ही ढंग से अपने प्रभु के दर्शन के लिए, अपने आपको प्रस्तुत करने में संलग्न था।
उस दिन यह रात्रि भर का विलम्ब सबको असह्य था। वह रात्रि, बड़ी दीर्घ रात्रि लगती थी। तुम अनुमान नहीं कर पाओगे पथिक, कि वह रात्रि लोगों ने कितनी उत्सुकतापूर्वक व्यतीत की। जो भी यहाँ उस दिन उपस्थित था, प्रातः की सूर्य-किरणें देखने के लिए बेकल था। अपने उन बहुश्रुत आराध्य बाहुबली का रूप निहारने के लिए, आबाल वृद्ध, उस दिन अत्यन्त उतावले थे। उस दिन प्रातःकाल होने के बहुत पूर्व से ही उत्सुक नर-नारियों का समूह विन्ध्यगिरि पर पहुँचने लगा।
यथासमय आचार्य महाराज ने बाहुबली की प्रथम वन्दना के लिए यहाँ से प्रस्थान किया। चामुण्डराय उस मुनि-संघ के अनुगामी थे। काललदेवी, अजितादेवी और सरस्वती, सभी उनके साथ-साथ चल रहे थे। जिनदेवन और पण्डिताचार्य पहले ही ऊपर पहुँच चुके थे। आगे पीछे सहस्रों नर-नारियों का समूह उसी पथ पर बढ़ता चला जा रहा था।
काललदेवी में आज न जाने किस शक्ति का उदय हुआ था। वे बिना किसी सहारे के तीव्रगति से चलने में आज पूर्णतः समर्थ थीं। सबसे आगे पहुँचकर भगवान् बाहुबली की उस चिरवांछित छवि का वे सर्वप्रथम