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लोकोत्तर कृति को निष्पन्नता का स्पर्श देकर, रूपकार जब अपनी पर्णकुटी की ओर चला, तब उसकी गति में गरिमा और शरीर में स्फूति थी। सात दिन तक अहर्निश, निराहार रहने की कोई क्लान्ति, इतने परिश्रम की कोई निर्बलता, उसके तन मन पर लक्षित नहीं हो रही थी।
१५० / गोमटेश-गाथा