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अपनो कुण्ठा और जड़ता का स्मरण करके भीतर से साहस मिला। अपने संकल्प को मन ही मन दोहराते हुए उसने नम्रतापूर्ण शब्दों में, दृढ़ता से भरा हुआ उत्तर दिया
'क्षमा करें महामात्य ! इस स्वर्ण की मूर्च्छा ने मुझे अपंग कर दिया है । इसी के मोह में मेरी साधना मुझसे रूठ गयी है। आपके अक्षय-अटूट स्वर्ण- कोष का मुझे अनुमान है । आपकी उदारता भी जग विख्यात है । मेरा तो भोजन-वस्त्र भी आपका ही प्रदान किया हुआ है । परन्तु जो वस्तु मेरी साधना में ही बाधक बन रही है उसे अंगीकार करके मैं जीवित कैसे रहूँगा ।'
'न जाने आपके पास कौन-सी विद्या है जो इतने स्वर्ण-भण्डार के स्वामी होकर भी आप सामान्य और प्रकृतिस्थ बने रहते हैं । आपकी सम्पदा के सिन्धु का बिन्दु भी मुझे अभी प्राप्त नहीं हुआ, परन्तु जितना भी मिला है उसी ने मुझे तो विक्षिप्त कर दिया। मेरी प्रार्थना स्वीकार कीजिए । मुक्त कर दीजिए मुझे इस अनुबन्ध से । आपका ही भोजन वस्त्र आजीवन ग्रहण करूँगा, परन्तु पारिश्रमिक अब मैं स्वीकार नहीं कर सकँगा ।'
'आपकी प्रभु प्रतिमा तो उस शिला में बनी हुई ही है । अपने अनुभव से मैंने कई बार उसका दर्शन किया है । यहाँ से अभी भी वह मुझे दिखाई दे रही है। ऊपर-ऊपर का कुछ अनावश्यक और अर्थहीन पाषाण उतार गा, तभी आपको भी उसका दर्शन उपलब्ध हो जायेगा ।'
'अब आप ही कहें महामात्य ! अनावश्यक के विमोचन में कैसा परिश्रम और उसका क्या पारिश्रमिक ? जो व्यर्थ होकर झर ही रहा है, उसके लेखे-जोखे का क्या महत्व ?"
चामुण्डराय को शिल्पी की बात प्रिय नहीं लगी । उन्हें उसके आवेग क्षणिक भावुकता का भी सन्देह हुआ । आचार्य महाराज से ही उन्होंने एकबार और प्रार्थना की
'शिल्पी का कथन अनुचित है महाराज ! यह लोक क्या कहेगा मुझे, एक शिल्पकार का प्राप्तव्य भी नहीं दे पाया चामुण्डराय ?'
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'यहाँ तुम्हारे दे पाने या नहीं दे पाने का प्रश्न ही कहाँ है गोमट ! शिल्पी के शब्द नहीं, अभिप्राय ग्रहण करो । उसकी भाषा नहीं, भाव समझने का प्रायस करो । स्मरण करो, तुम्हीं से एक दिन शिल्पी ने कहा था - 'ऐसे लोकोत्तर कार्य का पारिश्रमिक भी लोकोत्तर ही होना चाहिए ।'
हम जानते थे, एक दिन इस वाक्य का संशोधन होगा। आज वह १४४ / गोमटेश - गाथा