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निवेदन किया
'कहने को कुछ शेष नहीं रहा महाराज ! आपके दर्शनों से ही मेरी मूर्च्छा भंग हो गयी। एक भयानक स्वप्न देखा था, उसी से आक्रान्त और आतंकित हो उठा था मेरा मन । आपकी वाणी ने मुझे जगा दिया। अब न स्वप्न शेष है, न उसका आतंक |
मैंने अनुभव कर लिया है महाराज, यह स्वर्ण ही मेरी जड़ता का कारण बना है । पारिश्रमिक की लालसा में बंधे हाथ, आपकी विशद कल्पना को आकार नहीं दे पायेंगे। आसक्ति की खन्दक में डूबकर इतनी उत्तुंग मूर्ति का निर्माण कोई नहीं कर सकेगा। इस अनुबन्ध से मुक्त होकर ही मेरे उपकरण सृजन में समर्थ होंगे। मैं अर्जित और अनर्जित, समस्त पारिश्रमिक का त्याग करने के लिए, महाराज की आज्ञा और महामात्य की सहमति चाहता हूँ ।'
यथार्थ तो यह है पथिक, कि सिलावट और मूर्तिकार उन दिनों समाज के अत्यन्त सामान्य वर्ग के प्राणी माने जाते थे । कोई मूर्तिकार भी ऐसा प्रबुद्ध, इतना निष्प्रह और भावुक हो सकता है, ऐसी कल्पना उस सामन्ती समाज-व्यवस्था में सहज नहीं थी । मैंने उसके पूर्व अनेक वास्तुकारों, मूर्तिकारों और शिल्पियों को देखा है । वर्षों तक उन्होंने अपने उपकरणों से मुझे भी उपकृत और संस्कृत किया, पर ऐसा प्रतिभावान शिल्पी पहली बार इस प्रांगण में आया था। आज यह रूपकार जिस गरिमा के साथ आचार्य श्री के समक्ष उपस्थित था, शिल्पी का वह एक निराला ही रूप था । उसका संकल्प सुनकर लोग विस्मित से रह गये । चामुण्डराय को अपने कानों पर भरोसा करना कठिन हो रहा था । महाराज रूपकार को कोई उत्तर दें, इसके पूर्व ही उनकी अधीर वाणी गूँज उठी
'नहीं महराज ! यह किसी प्रकार उचित नहीं । पारिश्रमिक शिल्पी को लेना ही चाहिए ।'
साग्रह उन्होंने निवेदन किया, और तत्काल वे रूपकार की ओर उन्मुख हुए
'पारिश्रमिक तो स्वीकारते जाना होगा शिल्पी ! उत्तरोत्तर अब श्रम तुम्हें अधिक होगा और झरनेवाले पाषाण का भार घटता जाएगा, इसलिए आज से पाषाण के भार का दोगुना स्वर्ण तुम प्राप्त करोगे । इसे नकार नहीं सकोगे । पर्याप्त स्वर्ण है चामुण्डराय के कोष में ।'
महामात्य की दर्पयुक्त वाणी और प्रभावशाली महान् व्यक्तित्व के समक्ष, क्षण भर को तो रूपकार हतप्रभ-सा हुआ, परन्तु अविलम्ब ही उसे
गोमटेश - गाथा / १४३