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३२. स्वतन्त्रता का सन्देश
आज चर्तुदशी का पर्व था। पर्व के दिनों में शिल्पियों-श्रमिकों को पूरे दिन का अवकाश मिलता था। मुनि संघ में उस दिन प्रातःकाल आचार्यश्री का प्रवचन होता था। सभी साधु उपवासपूर्वक साधना में ही वह दिवस व्यतीत करते थे।
रूपकार जब अम्मा के साथ वहाँ उपस्थित हुआ, तब सभी लोग देव, शास्त्र और गुरु की पूजन-भक्ति करके सभास्थल पर एकत्र हो चुके थे। महामात्य सपरिवार वहाँ उपस्थित थे। प्रवचन प्रारम्भ होने में विलम्ब नहीं था। गुरु को नमन करके माँ बेटे वहीं एक ओर बैठ गये।
आज आचार्य महाराज ने अपने प्रवचन में स्वतन्त्रता और परतन्त्रता का विश्लेषण किया। दो घड़ी तक उनकी वचन-गंगा यहाँ प्रवाहित होती रही। आज भी तुम लोगों के लिए उस उपदेश की उपयोगिता असंदिग्ध है। इस प्रकार प्रारम्भ हुआ उनका प्रवचन
संसार का प्रत्येक प्राणी स्वतन्त्रता का आकांक्षी है। वह परतन्त्रता से आतंकित है। भगवान् महावीर का दर्शन, स्वतन्त्रता का अभय दिलाने वाला विश्व का अनुपम दर्शन है। इस दर्शन में अपने 'स्व' के अभिज्ञान द्वारा ही मोक्षमार्ग की साधना का विधान किया गया है। अपने आपको पहचानने का यह पुरुषार्थ, विश्व का सबसे बड़ा पुरुषार्थ कहा गया है। अपने 'स्व' को प्राप्त कर पाना ही जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि मानी गई है।
-अज्ञानी प्राणी दीर्घकाल से संसार के इस मंच पर, नाना प्रकार के रूप-वेष धारण करता हआ भटक रहा है। संसार में उसने बद्धि के बड़े-बड़े प्राणायाम किये, परन्तु अपना वैज्ञानिक विश्लेषण कभी नहीं किया। दूर-दूर के पदार्थों को जाना, उन्हें जुटाया, उनका उपभोग