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बाहुबली की प्रथम मूर्ति थी, पर वर्तमान में बाहुबली - मूर्तियों का निर्माण अभी दो तीन सौ वर्ष पूर्व सर्वप्रथम इसी कर्नाटक देश में प्रारम्भ हुआ था और अब सारे देश में उसका प्रचार हो रहा था ।
मध्य देश की पुष्पावती नगरी के आदिनाथ जिनालय में, देवगढ़ के लुअच्छगिरि पर शान्तिनाथ जिनालय में और खर्जुरवाहक के पार्श्वनाथ मन्दिर की अन्तरंग परिक्रमा में, बाहुबली प्रतिमाओं का निर्माण तब तक हो चुका था । पुष्पावती नगरी का नाम अब तुम लोगों ने बिलहरी कर लिया है। आज का तुम्हारा विख्यात कलाकेन्द्र खजुराहो ही तब का खर्जुरवाहक है ।
इस प्रकार उत्तर भारत में कलचुरी, प्रतिहार और चन्देल कलाकारों ने अपनी कला में बाहुबली की अवतारणा, अभी थोड़े ही दिन पूर्व, प्रायः एक ही साथ प्रारम्भ की थी। इन तीनों ही बाहुबली - बिम्बों के आकारप्रकार में, इनकी रचना - संयोजना में, अद्भुत समानता थी । इनकी अवगाहना दो हाथ से कम ही थी । इन प्रतिमाओं की एक विशेषता सुनकर उस दिन मुझे मोद हुआ था कि इनमें बाहुबली के शरीर पर, भुजाओं को आवेष्टित करती बेलों के साथ-साथ, रेंगते हुए विषधर नाग और वृश्चिक भी अंकित किये गये थे । विषधरों के इस भाँति अंकन से, उन महातपस्वी का एकासन तपश्चरण, उन प्रतिमाओं में अवश्य ही अधिक जीवन्त हो उठा होगा ।
इतना प्रचार होने पर भी बाहुबली की ये समस्त प्रतिमाएँ मन्दिरों की दीर्घा में या उपवेदिकाओं पर ही पाई गयी थीं । मूलनायक की तरह मन्दिरों की मुख वेदिका पर उनकी स्थापना अभी प्रारम्भ नहीं हुई थी । आकार में भी ये सामान्य ही थीं ।
आचार्य महाराज अनुभव करते थे कि इन उपलब्ध प्रतिमाओं में एक भी ऐसा सानुपातिक बाहुबली विग्रह नहीं था, जिसे आदर्श मानकर विन्ध्यगिरि पर उनकी मन बांछित प्रतिमा का तक्षण प्रारम्भ किया जा सकता । चामुण्डराय और रूपकार से बार-बार वे ऐसा कहते, सरस्वती को पुनः पुनः अपनी कठिनाई बताते, कि जिस लोकदुर्लभ धृति और क्षमाशीलता के कारण बाहुबली उपास्य हुए, जिस अपराजेय देह शक्ति, और अपार अभ्यन्तर उदारता ने लोकमानस में उन्हें तीर्थंकरों के समकक्ष स्थापित कर दिया, जिस आत्म- आनन्द के चिन्तन और अनुभूति ने उन्हें बारह मास तक पलक उठाने तक का भी अवकाश नहीं दिया, बाहुबली की उन सब अलौकिक विशेषताओं को स्पष्ट अंकित करके दिखाना ही प्रस्तावित प्रतिमा का अभिप्राय है । वह विशेषताएँ देश की किसी भी
गोमटेश - गाथा / ११५