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२५. बाहुबली : विलक्षण व्यक्तित्व
सर्वज्ञ बाहुबली की पूजा अर्चना के लिए असंख्य नर-नारी उस तपोवन में आने लगे। कई दिन तक यह क्रम चलता रहा । अरिहन्त अवस्था प्राप्त हो जाने पर उनका शरीर सप्त धातुओं की उत्पत्ति से रहित, पवित्र और दिव्यता सम्पन्न हो गया था । शरीर में नखों केशों का बढ़ना रुक गया था । क्षुधा, तृषा, विस्मय, जिज्ञासा, क्लान्ति और स्वेद आदि सभी दैहिक और मानसिक विकारों का उनमें अभाव था। अनेक स्थानों पर विहार करते हुए, अन्त में एक दिन जब वे ऋषभदेव की धर्म-सभा में विराजमान थे, उनकी भवस्थिति समाप्त हो गयी । बाहुबली का निर्वाण हो गया। उनकी निर्विकार आत्मा जन्म मरण से छूटकर लोक के शिखर में अनन्तकाल के लिए स्थित हो गयी । शरीर सूक्ष्म रूप में परिणत होकर कपूर की तरह अदृश्य हो गया ।
भरत ने कर्मोदय की बाध्यता मानकर दीर्घकाल तक, निस्पृहतापूर्वक वात्सल्य भाव से प्रजा का पालन करते हुए पृथ्वी का शासन किया । चक्र के नियोग से जो उपद्रव उत्पन्न हुए थे, उनसे शिक्षा लेकर फिर कभी उन्होंने परिग्रह की मूर्च्छा को अपनी चेतना पर अधिकार नहीं करने दिया । वे सतत सावधान रहे । राजकाज की व्यस्तता में और राग-रंग की तल्लीनता में रमता हुआ भी उनका मन कभी उनमें डूबा नहीं । कमल के पत्र की तरह वे सदा उन परिग्रहों के ऊपर, उनसे निर्लेप ही रहे। राजर्षि भरत ने राग में भी विराग की प्रतिष्ठा करके दिखा दी राज्यानुशासन में आत्मानुशासन की साधना सफल कर ली। इसी दीर्घ साधना का फल था कि जिस दिन उन्होंने राज्य त्याग कर मुनि दीक्षा ग्रहण की, उसी दिन, उसी समय उनकी अनन्त शक्तियाँ प्रकट हो गयीं । अरिहन्त पद की प्राप्ति के लिए आत्म-साधक भरत को एक दिन भी तप