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निस्सार और स्वादहीन लगने लगा। आक्रोष का विषधर धीरे-धीरे उन्हें अपनी कुण्डली में लपेटने लगा। बाहुबली पर उनके घात-प्रतिघात असंतुलित होने लगे। भरत की उद्विग्नता ने बाहुबली को भी क्षणिक आवेश से भर दिया। अग्रज के अहंकार का खण्डन करना उन्हें भी आवश्यक लगने लगा। इसी समय कोपाविष्ट भरत ने पूरे वेग से उन पर मुष्टिप्रहार किया। तड़ित वेग से झुककर बाहुबली वह प्रहार तो बचा गये परन्तु उनके मन का संयम उस प्रहार से टूट गया। आवेश में झपटकर उन्होंने क्रोध और अहंकार की उस प्रतिमूर्ति को दोनों हाथों पर अधर में उठा लिया। ___मतवाला हाथी अपनी सूंड में महावत को उठाकर जैसे फिराता हो, उसी प्रकार बाहुबली भरत को बाहों पर, अपने सिर से ऊपर उठाये, उस रेणु-क्षेत्र में चतुर्दिक घूम गये। प्रवरगण देख लें अहंकार का पराभव । चक्रवर्ती की चतुरंगिणी भलीभाँति समझ लें अनीति की नियति। साक्षी रहें चारों दिशाएँ कि आज बाहुबली इस पृथ्वीपति को पछाड़ता है, इसी की धरा पर।
सारा समुदाय स्तम्भित रह गया। उस निमिष लोगों की सांस तक रुक गई। किसी अनहोनी की आशंका से बहुतों ने आँखें मूंद लीं।
'क्षमस्व कुमार, क्षमस्व !' एक स्वर, वातावरण की निस्तब्धता को चीरकर, बाहुबली के कानों से टकराता हुआ शून्य में गूंज गया। यह समुदाय के सर्वाधिक व्यथित व्यक्ति की वाणी थी। वृद्ध महामन्त्री के कण्ठ से ही यह आर्त पुकार निसृत हुई थी। यशस्वती और सुनन्दा दोनों की ममता इस वाक्य में अनूदित थी।
क्षण भर में, नहीं, क्षण तो बहुत बड़ा होता है, क्षण के शतांश में, यह सब घट गया। परिक्रमा पूरी करके बाहुबली की भुजाएँ भरत को पछाड़ने के लिए सक्रिय हुईं। चिन्तन में था ही कि 'इसी की धरा पर इसे पछाड़ना है।' तभी उस 'धरा' शब्द ने उन्हें झकझोर दिया। उस शब्द के सन्दर्भ ने लोक-भावना का रूप धारण करके, तत्क्षण बाहबली को आवेग के शिखर से उतारकर यथार्थ की धरा पर खड़ा कर दिया : ___'इसकी धरा ?' 'किसकी धरा ?' 'क्या यह धरती भी कभी किसी की हुई है ? यह तो शाश्वत है। इसका अस्तित्व तो कभी किसी के स्वामित्व का आकांक्षी रहा नहीं। इसकी प्रभुता तो कल्पित और क्षणभंगुर ही है। इस धरती के मिथ्या-स्वामित्व में इतना संक्लेश? यह मैं क्या कर रहा हूँ ? ये भरत हैं, मेरे पूज्य अग्रज। बड़ी माँ के दुलारे, भरत।' तभी उस
गोमटेश-गाथा / ६५