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सरयू के सलिल में अनेक बार की गई क्रीड़ा का दोनों को अभ्यास था । बड़ी देर तक नाना मुद्राओं से दोनों ने जल-प्रयोग किया परन्तु भरत की अपेक्षाकृत कम ऊँची देह, इस प्रतिस्पर्धा में उनकी विजय में बाधक रही । बाहुबली के सशक्त करों से प्रक्षेपित जलपुंज बार-बार उनके नेत्रों को निमीलित करता हुआ, मुख भाग को प्रताड़ित करता हुआ उन्हें क्लान्त करता रहा, किन्तु भरत द्वारा उछाला गया जल बाहुबली की ग्रीवा से ऊपर नहीं पहुँच पाया । उससे उन्हें वैसी क्लान्ति नहीं हुई। दो घड़ी तक पूरे वेग से यह जल-क्षेपण चलता रहा । पश्चात् थकितगात भरत ने अपनी पराजय स्वीकार कर ली । बाहुबली की सेना में हर्ष का संचार हुआ । अयोध्या के सैनिकों का मुख मलीन हो गया ।
मल्ल-युद्ध
अब अन्तिम संघर्ष की बारी थी । मल्ल - युद्ध में भरत बाहुबली दोनों को परस्पर जूझना था । नदी तीर की स्वच्छ बालुका से रात्रि में ही वहाँ एक विस्तृत रेणु क्षेत्र का निर्माण हो चुका था । छोटी-छोटी पीत पता - काओं और श्वेत रेखाओं से उस क्षेत्र को सीमाबद्ध कर दिया गया। चारों ओर सभी लोग यथाक्रम बैठ गये ।
अयोध्या की व्यायामशाला में क्रीड़ा के लिए जैसे ही आज मल्लयुद्ध के लिए सन्नद्ध दोनों वीर, उस रेणु-क्षेत्र में प्रविष्ट हुए । उनके सुन्दर सुडौल शरीर, तेल से सुचिक्कण होकर चमक रहे थे । देह पर एक कसी हुई कोपीन के अतिरिक्त कोई वस्त्र अलंकार नहीं था । कर्मोदय और परम्परा ने जैसे आज उनकी समस्त भावनाओं को अपनी अटलता में बाँधकर विवश कर दिया था, उसी प्रकार उनकी कांधों तक लहराती सघन केश राशि, कौषेय पट्टिकाओं में बाँधकर अनुशासित की गई थी । दोनों एक दूसरे से अधिक सुन्दर, अधिक मनभावन लग रहे थे ।
प्रवरगणों की साक्षी में युद्ध प्रारम्भ हुआ। दोनों सुभट मल्ल विद्या के कुशल अभ्यासी थे । प्रतिस्पर्धी की नासा, नेत्र और ग्रीवा आदि मर्मस्थलों को बचाते हुए, अपने-युद्ध विधानों द्वारा, पूरी शक्ति के साथ वे एक दूसरे को धराशायी करने के प्रयत्न करने लगे
लगातार दो बार की पराजय ने भरत के मन को खीझ से भर दिया था। उन्हें लगा कि उनकी हार से पर-साम्राज्य की सेना में, देश-विदेश के नरेशों-सामन्तों में उनका उपहास होगा । संसार उनके अपयश पर हँसेगा । उनका साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो जायगा । बाहुबली को पराजित किये बिना उन्हें अपनी दिग्विजय निरर्थक दिखाई देने लगी । चक्रवर्तित्व
६४ / गोमटेश - गाथा