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से चल रहा था। युद्ध की विवशता से खिन्न दोनों भाइयों की मनस्थिति विचित्र-सी हो गई थी। परिस्थितियों ने यह युद्ध उन पर थोपा था। बिना लड़े वे रह नहीं सकते थे, परन्तु यह लड़ाई उन्हें तनिक भी प्रिय नहीं थी। उनमें एक दूसरे के लिए शत्रुता का भाव नहीं था, परन्तु दोनों ही मान कषाय के उद्रेक का अनुभवन कर रहे थे। अपनी टेक रखने के लिए दोनों अपनी विजय के आकांक्षी थे, परन्तु प्रतिपक्षी की पराजय इस युद्ध में उनका उद्देश्य नहीं था। भ्राता के पराभव की कल्पना तक उन दोनों के मन में मर्मान्तक पीड़ा उत्पन्न करती थी। नियति के हाथ का खिलौना बने हुए वे दोनों महापुरुष, अनेक दिनों से वह पीड़ा भोगने के लिए विवश थे।
पोदनपुर की सेना थोड़ी थी पर उसके सैनिकों का मनोबल बहुत ऊँचा था। अपने राज्य की प्रतिष्ठा और अपनी स्वाधीनता की रक्षा का पवित्र अभिप्राय उन्हें प्रोत्साहित कर रहा था। अपने शक्तिशाली स्वामी का निरन्तर सामीप्य, अभेद्य कवच की तरह उन्हें अपनी रक्षा करतासा लगता था। दूसरी ओर अयोध्या के सैनिकों में विश्वविजेता होने का गौरव तो था, पर इस युद्ध के प्रति उनमें उत्साह का अभाव था। वे समझते थे कि यह युद्ध किसी सुविचारित अभिप्राय के लिए आयोजित नहीं है, केवल चक्ररत्न की जड़ता ने, सारे नेह-नातों की बलि देकर, भाई-भाई के बीच इस युद्ध को अनिवार्य बना दिया है। उन्हें लगता था कि इस अनोखी व्यवस्था का निर्जीव-सा अंग बनकर वे भी यन्त्र की तरह संचालित होने को बाध्य हो गए हैं। बाहुबली के अतिशय बलविक्रम की गाथाएँ वे अनेक बार सुन चुके थे। उनकी अजेय शक्ति से टकराने की कल्पना भरत के सैनिकों को आतंकित भी करती थी, परन्तु चक्रवर्ती की दिव्य शक्तियों के बल पर, अपनी विजय के प्रति वे आश्वस्त थे। दोनों पक्षों के अनेक सैनिक पूर्व परिचित थे। परस्पर मिल-बैठकर वे सुख-दुख की चर्चा करने लगे।
महामन्त्री ने दोनों ओर के प्रमुखों और अमात्यों से विचार-विमर्श किया, सेनाध्यक्षों से भी मन्त्रणा की। राजमाता की भावना से उन्हें अवगत कराया। अपना विचार स्पष्ट शब्दों में सबके समक्ष प्रस्तुत किया
'एक दिन अयोध्या की सेना के विभाजन से पोदनपुर की सेना का गठन हुआ था। यद्यपि अपनी जन्मभूमि के लिए और अपने स्वामी के लिए हमारा जीवन सदा निछावर है, परन्तु क्या आज एक ही शरीर के दाहिने हाथ को बायें हाथ से लड़ना पड़ेगा। अरिमर्दन करनेवाले अपने
गोमटेश-गाथा | ८६