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मन्थन हो रहा था । शरीर स्थित था किन्तु मन में प्रलय की लहरों-सा ज्वार उठ रहा था। मस्तक पर स्वेद बिन्दु झिलमिला रहे थे । रानी जयमंजरी ने उस विशाल मस्तक पर अपने प्रसून मृदुल कर-पल्लव फेरते हुए स्नेहसिक्त वाणी में संतप्त पति को सम्बोधन किया
'अब शान्त होकर विश्राम करें स्वामी । परिस्थितियों के लय-ताल पर नाचने को हम सब विवश हैं । इसी का नाम तो संसार है । कर्तव्य के समक्ष भावना का शमन ही महापुरुषों का करणीय है । अनासक्त मन से वही आपको करना है ।'
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'प्राणेश्वर की प्रतिष्ठा खण्डित होती देखना पड़े ऐसी हतभाग्या मैं नहीं हूँ । आपका पौरुष अजेय है, और मेरा भाग्य, इन्द्राणी भी जिसकी स्पर्धा करें ऐसा महान् है । अयोध्या की युवराज्ञी बनकर उस राज भवन में प्रवेश करते समय, मैंने सर्वप्रथम बड़ी माँ के चरणों का ही आपके साथ वन्दन किया था । 'अखण्ड सौभाग्यवती भव', उनके मंगल आशीष के ये तीन शब्द, त्रिलोक की सम्पदा से भी अधिक सम्पन्नता मुझे दे गये थे। उस अमृत आशीष की सत्यता पर संदेह करूँ ऐसी पापिष्ठा मैं नहीं हूँ । मुझे उस वाणी पर, और अपने अखण्ड सौभाग्य पर अटल विश्वास है । मन की आस्था का वही कवच लेकर कल यह दासी भी इन चरणों की अनुगामिनी होकर स्वामी के पराक्रम का दर्शन करेगी।
८२ / गोमटेश - गाथा