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संस्थान कहते है. प्रथम प्रकार के किल्विपिकों की तीन पल्योपम आयु है और वे पहले तथा दूसरे देवलोकके नीचे रहते हैं. दूसरे प्रकारके किल्बिषकोंकी आयु, तीन सागरोपमकी है और वे तीसरे तथा चौथे देवलोकके नीचे रहते हैं. तीसरे प्रकारके किल्बिषकों की आयु तेरह सागरोपम है और वे पाँचवें तथा छठे देवलोकके नीचे रहते हैं. ये सब किश्विषिक देव, चाण्डाल के समान, देवोंमें नीच समझे जाते हैं. लोकान्तिक देव, पाँचयें देवलोकके अन्तमें उत्तर-पूर्वादि कोणमें रहते हैं. चौसठ इन्द्रः - भवनपति देवोंके वीस, व्यन्तरोंके बत्तीस, ज्योतिषियों के दो और वैमानिक देवोंके दस, सबकी संख्या मिलानेपर इन्द्रोंकी चौसठ संख्या होती है.
शास्त्रमें देवोंके १९८ भेद कहे हैं, उनको इस तरह समझना चाहिये:-भचनपतिके दस, चर ज्योतिष्कके पाँच, स्थिर ज्योतिष्कके पाँच, वैताढ्यपर रहनेवाले तिर्यक जृम्भक देवोंके दस भेद, नरकके जीवोंको दुःख देनेवाले परमाधामीके पन्दरह भेद, व्यन्तरके आठ भेद, वानव्यन्तरके आठ भेद, किल्विषियोंके तीन भेद, लोकान्तिकके नव भेद, वारह | देवलोकोंके बारह भेद, नव ग्रैवेयकोंके नव भेद, पाँच अनुत्तरविमानोंके पाँच भेद, सब मिलाकर ९९ भेद हुए, इनके भी पर्याप्त और अपर्याप्त रूपसे दो भेद हैं, इस प्रकार १९८ भेद देवोंके होते हैं. मनुष्योंके ३०३ भेद पहले कह चुके ।
अब तिर्यके ४८ भेद कहते हैं:- पाँच सूक्ष्मस्थावर, पाँच बादरस्थावर, एक प्रत्येक वनस्पतिकाय और तीन विक | लेन्द्रिय सब मिलाकर चौदह हुए; ये चौदह पर्याप्त और अपर्याप्त रूपसे दो प्रकारके हैं, इस तरह अट्ठाईस हुए जलचर, खेचर, तथा स्थलचरके तीन भेदः - चतुष्पद, उरः परिसर्प तथा भुजपरिसर्प, ये प्रत्येक संमूच्छिम और गर्भज होनेसे