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________________ 12 जे मूल स्वभाव पलटे नही ते अप्रच्युति नित्यता कहियें अने ए नित्यतामा जे ऊर्ध्व प्रचय को ते ओलखाने छे जे पहले समय अपनी परिणति हवी ते बीजे समय नवा पर्यायने उपजने अने पूर्वपर्यायने व्यये सर्व पर्यायनी परावृति थइ तो पण ए द्रव्य तेनुं तेज एवं जे ज्ञान धाय ते द्रव्यमां उर्ध्वप्रचय कहिये उपरले समये ते माटे उर्ध्व प्रचय कहिये. तथा अनंताजीव सरिखा के सर्वभिन्नभिन्न छे पण सर्वजीव जाणताए पण जीव एवो जीवत्वसत्तायेंतुल्य भिन्न जीव सत्तारूप ज्ञान धाय ते तिर्यक्प्रचय कहिये. ऊर्ध्वप्रचय ते समयांतरे अनेक उत्पादव्ययने पलटवे पण ए जीव ते तेज छे एवं ज्ञान थाय ए नित्यस्वभावनो धर्म जाणवो. ए कारणथी कार्यउपनो तेनुं ज्ञान थाय ते नित्यस्वभावनो धर्म जाणो. तथा ए कारणथी जे कार्यउपनो वली ज्ञान थयुं ते कारणथी बीजे कारणे बीजुं कार्य थाय एम नवे नत्रे कार्यउपने पण जीव तेज छे एवं जे ज्ञान थाय, परंपरारूप संतति चाली जाय ते पारंपर्य नित्यता कहिये जेम प्रथम शरीरने कारणे राग हतो तेहिज वस्त्र धनने कारण प्रते राग धयो ते कारण नत्रा रागनो नवापणो पण राग रहित आत्मा केबारे नही, ए पारंपर्य एटले परंपरा नित्वता कहियें. बीजुं नाम संतति नित्यता जाणवी ते कारण योगे निमित्तें नीपजे, नवा नवा पर्यायने परिणमके एटले पूर्व पर्यायने arara तथा अभिनव पर्यायने उपजवे अनित्य स्वभाव जाणवो. एटले उत्पत्ति के० उपजको व्यय के० विणसवो एवो जे स्वभाव ते अनित्य स्वभाव जाणवो. तत्र नित्य द्विविधं कूटस्थं प्रदेशादिनां परिणामित्वं ज्ञानादिगुणानां तत्रोत्पादव्ययावने "
SR No.090175
Book TitleJivvicharadiprakaransangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJindattsuri Gyanbhandar Surat
PublisherJindattsuri Gyanbhandar
Publication Year
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size7 MB
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