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________________ ७ भोगोपभोग परिमाण व्रत कहे छे जे एकवार भोगवईं ते भोग अने जे वारंवार भोगवई ते उपभोग तेनो परि|माण करे ते व्यवहार भोगोपभोग त कहिये अने जे व्यवहारनयें कर्मनो कर्ता भोक्ता जीव छे अने निश्चय नये तो कर्मनो कर्ता कर्म छे आत्मा अनादिनो परभाव भोगी थयो छे तेथी परभावग्राहक अने परभावरक्षक थयो एटले| आत्मानी ज्ञायकता ग्राहकता भोग्यता रक्षकता बीगडे कर्ता पणो बीगड्यो तेवारें परभाव कर्ता थयो ते पण परभाव रंगीपणे आठ कर्मनी कर्ता थयो छे पण सत्तायें तो स्वभावनो कर्ता छे पण उपगरण अवराणा तेथी स्वकार्य करी । शकतो नथी विभावने करे छे अज्ञान पणे जीवनो उपयोग मल्यो छे पण न्यारो छ पोताना ज्ञानादिक गुणनो कर्ता | भोक्ता छ एह्यो स्वरूपानुयायी परिणाम ते निश्चे भोगोपभोग प्रत त्याग जाणवो. ८ अनर्थदण्ड विरमण प्रत कहे छे. जे काम विना जीवनो वध करवो पारकावारते आरंभ प्रमुख करयानी आज्ञा प्रमुख आपली ते व्यवहार अनर्थ दंड अने शुभाशुभ कर्म ते मिथ्यात्व अविरति कषाय योगधी बंधाय छे तेने जीव13 आपणा करी जाणे ए निश्चंथी अनर्थदंड. । ९ सामायक प्रत कहे छे. जे मनवचनकायाना आरंभ टालीने तेने निरारंभपणे वावे ते व्यवहार सामायक जाणवो अने जे जीवना ज्ञान दर्शन चारित्र गुण विचारे सर्व जीवना गुणनी सत्ता एक समान जाणी सर्व जीव साथे। समता परिणामें वर्ते ते निश्चंथी समतारूप सामायक कहिये. १० देशावगाशिक प्रत कहे छे. जे मन वचन कायाना योग एक ठोर करी एकस्थानकें बेसी धर्म ध्यान करवो ते|
SR No.090175
Book TitleJivvicharadiprakaransangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJindattsuri Gyanbhandar Surat
PublisherJindattsuri Gyanbhandar
Publication Year
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size7 MB
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