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________________ ४०] गणितसारसंग्रहः [३.२४अत्रोद्देशकः द्वित्र्यंशः षड्भागस्त्रिचरणभागो मुखं चयो गच्छः। द्वौ पञ्चमी त्रिपादो द्वित्र्यंशोऽन्यस्य कथय किं वित्तम् ।।२३।। आदिः प्रचयो गच्छत्रिपञ्चमः पञ्चमस्त्रिपादांशः । सर्वांशहरौ वृद्धौ द्वित्रिभिरा सप्तकाञ्च का चितिः ॥२४॥ ___ इष्टगच्छस्याद्युत्तरवर्गरूपघनरूपधनानयनसूत्रम्पदमिष्टमेकमादिव्य॒केष्टदलोद्धृतं मुखोनपदम् । प्रचयो वित्तं तेषां वर्गो गच्छाहतं वृन्दम् ॥२५॥ उदाहरणार्थ प्रश्न जिस श्रेढि में प्रथम पद, प्रचय और पदों की संख्या क्रमशः ३, और हों तथा ऐसी ही एक और श्रेढि में ये क्रमशः ३, ३ और हों तो इन श्रेढियों के योग बतलाओ ॥२३॥ समानान्तर श्रेढि में दी गई एक श्रेढि के प्रथम पद, प्रचय और पदों की संख्या क्रमशः ६, ६ और है है। इन सब भिन्नात्मक राशियों के अंश और हर उत्तरोत्तर २ और ३ द्वारा क्रमशः बढ़ाये जाते हैं जब तक कि ७ श्रेढियाँ इस प्रकार तैयार नहीं हो जातीं। बतलाओ कि इनमें से प्रत्येक श्रेढि का योग क्या है ?॥२४॥ जब योग, दी हुई श्रेढि के पदों की संख्या का वर्गरूप या धनरूप हो तो चुने हुए पदों वाली श्रेढि के सम्बन्ध में प्रथम पद, प्रचय और योग निकालने का नियम जो भी पदों की संख्या चुनी गई हो उसे लो और प्रथम पद को एक मान लो। पदों की संख्या को प्रथम पद द्वारा हासित कर और तब एक कम पदों की संख्या की आधी राशि द्वारा भाजित करने से प्रचय प्राप्त होता है। इनके सम्बन्ध में श्रेढि का योग पदों की संख्या की राशि का वर्ग होता है। यह जब पदों की संख्या द्वारा गुणित किया जाता है तो योग का धन प्राप्त होता है ।।२५।। न-१ (२३) जब श्रेदि में पदों की संख्या भिन्न के रूप में दी गई हो तो स्पष्ट है कि ऐसी श्रेढि साधारणतः बनाई नहीं जा सकती। परन्तु, अभिप्राय यह प्रतीत होता है कि दिया गया नियम इन दशाओं में ठीक उतरता है। ( २५ ) स्पष्ट है कि, सूत्र में य= न (अ+न-१ ब), और जब अ = १और ब = २(न-अ) हो तो य का मान न' के तुल्य हो जाता है। इस योग में न का गुणन करने में, अ और ब का न द्वारा गुणन भी अंतर्भूत है ताकि जब अ = न और ब =न-१२न हो, तब य = न हो। कुछ और विचार न-१ करने पर ज्ञात होगा कि अ का मान चाहे पूर्णांक अथवा भिन्नीय हो फिर भी ब का नाम) न-१ रूपवाला मान य की अर्हा को न के रूप में ला सकता है। ' चिह्न का अर्थ अन्तर होता है।
SR No.090174
Book TitleGanitsara Sangrah
Original Sutra AuthorMahaviracharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain, L C Jain
PublisherJain Sanskriti Samrakshak Sangh
Publication Year1963
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, & Maths
File Size35 MB
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