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३. २३-] कलासवर्णव्यवहारः
[३९ अर्धत्रिभागपादाः पञ्चांशकषष्ठसप्तमाष्टांशाः । दृष्टा नवमश्चेषां पृथक् पृथग्बेहि गणक घनम् ॥१८॥ त्रितयादि चतुश्चयकोंऽशगणो द्विमुखद्विचयोऽत्र हरप्रचयः । दशकं पदमाशु तदीयघनं कथय प्रिय सूक्ष्ममते गणिते ॥१९॥ शतकस्य पञ्चविंशस्याष्टविभक्तस्य कथय घनमूलम् । नवयुतसप्तशतानां विंशानामष्टभक्तानाम् ॥२०॥ भिन्नघने परिदृष्टघनानां मूलमुदग्रमते वद मित्र । ब्यूनशतद्वययुग्द्विसहरुया श्वापि नवप्रहतत्रिहृतायाः ॥२१॥
इति भिन्नवर्गवर्गमूलघनघनमूलानि ।
भिन्नसंकलितम् भिन्नसंकलिते करणसूत्रं यथापदमिष्टं प्रचयहतं द्विगुणप्रभवान्वितं चयेनोनम् । गच्छार्धनाभ्यस्तं भवति फलं भिन्नसंकलिते ॥२२॥
१M सप्तशतस्यापि सखे व्येकोनत्रिंशकाष्टकाप्तस्य ।
१.१६ , और राशियाँ दी गई हैं। इनके घन अलग-अलग बतलाओ ॥१८।। दिये गये भिन्नों के अंश ३ से आरम्भ होकर ४ द्वारा उत्तरोत्तर बढ़ते हैं। हर २ से आरम्भ होकर उत्तरोत्तर २ द्वारा बढ़ते हैं। ऐसे भिन्नात्मक पदों की संख्या १० है। हे तीव्र बुद्धिधारी गणक मित्र ! बतलाओ कि उनके घन क्या होंगे? ॥१९॥ १५ और १९ के घनमूल निकालो ॥२०॥ हे अग्रमते मित्र ! भिन्नों के घन निकालने के प्रश्नों में प्राप्त धन राशियों के घनमूल और २१९७ का घनमूल निकालकर बतलाओ।
इस प्रकार कलासवर्ण व्यवहार में भिन्न सम्बन्धी वर्ग, वर्गमूल, धन, घनमूल नामक परिच्छेद समाप्त हुआ।
भिन्न संकलित ( भिन्नात्मक श्रेढियों का योगकरण ) भिन्नात्मक श्रेढियों का संकलन सम्बन्धी नियम
समान्तर श्रेढि में भिन्नात्मक श्रेढि को बनाने वाले पदों की चुनी हुई संख्या को प्रचय द्वारा गुणित करते हैं और प्रथमपद की द्विगुणित राशि में मिलाते हैं। प्राप्त फल को प्रचय से हासित करते हैं। जब यह परिणामी राशि पदों की संख्या की आधी राशि से गुणित की जाती है, तब वह समान्तर श्रेदि की भिन्नात्मक श्रेढि के योग को उत्पन्न करती है ॥२२॥
है। इसके लिये द्वितीय अध्याय की ६२वीं
(२२) बीजीयरूप से, य = (नब+२अ-ब) गाथा देखिये ।