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________________ ३०] गणितसारसंग्रहः [३. १२त्र्यादिरूपपरिवृद्धियुजोंऽशा यावदष्टपदमेकविहीनाः । हारकास्तत इह द्वितयाद्यैः किं फलं वद परेषु हृतेषु ॥१२॥ इति भिन्नभागहारः। भिन्नवर्गवर्गमूलघनघनमूलानि 'भिन्नवर्गवर्गमूलघनघनमूलेषु करणसूत्रं यथाकृत्वाच्छेदांशकयोः कृतिकृतिमूले घनं च घनमूलम् । तच्छेदैरंशहतौ वर्गादिफलं भवेद्भिन्ने ॥१३।। अत्रोद्देशकः पञ्चकसप्तनवानां दलितानां कथय गणक वर्ग त्वम् । षोडशविंशतिशतकद्विशतानां च त्रिभक्तानाम् ॥१४॥ त्रिकादिरूपद्वयवृद्धयोंऽशा द्विकादिरूपोत्तरका हराश्च । पदं मतं द्वादशवर्गमेषां वदाशु मे त्वं गणकाग्रगण्य ॥१५॥ पादनवांशकषोडशभागानां पञ्चविंशतितमस्य । षट्त्रिंशद्भागस्य च कृतिमूलं गणक भण शीघ्रम् ।।१६।। भिन्ने वर्गे राशयो वर्गिता ये तेषां मूलं सप्तशत्याश्च किं स्यात् । त्र्यष्टोनायाः पञ्चवर्णोद्धृताया ब्रूहि त्वं मे वर्गमूलं प्रवीण ॥१७॥ १M भिन्नवर्गभिन्नवर्गमूलभिन्नघनतन्मूलेषु । बढ़ते चले जाते हैं जब तक कि उनकी संख्या ८ नहीं हो जाती। हर भी दो से आरम्भ होकर संवादी अंशों से क्रमशः एक कम हैं। मुझे बतलाओ कि यदि प्रत्येक अग्रिम भिन्न को पूर्ववर्ती भिन्न के द्वारा विभाजित किया जाय तो क्या फल होगा ? ॥१२॥ इस प्रकार, कलासवर्ण व्यवहार में, भिन्न भागहार नामक परिच्छेद समाप्त हुआ। भिन्न सम्बन्धी वर्ग, वर्गमूल, घन, घनमूल भिन्नों के सम्बन्ध में वर्ग करने वर्गमूल निकालने, घन करने, और घनमूल निकालने के लिये नियम जब हल किये गये भिन्न के अंश और हर का अलग-अलग वर्ग, वर्गमूल, घन अथवा घनमूल निकाल लिया जाता है तब इस तरह प्राप्त नये अंश को नये हर द्वारा भाजित किया जाता है। इस प्रकार भिन्न के सम्बन्ध में वर्ग अथवा वर्गमूल, घन अथवा घनमूल प्राप्त होता है ॥१३॥ उदाहरणार्थ प्रश्न हे अंकगणितज्ञ ! मुझे बतलाओ कि १, २, ३, ४, और २४ के वर्ग क्या. होंगे?॥१४॥ दिये गये भिन्नों के अंश ३से आरम्भ होते हैं और उत्तरोत्तर क्रमशः २ द्वारा बढ़ते चले जाते हैं; हर २ से आरम्भ होते हैं और उत्तरोत्तर १ द्वारा बढ़ते चले जाते हैं। इन भिन्नों की संख्या १२ है। हे अंकगणितज्ञों में अग्रणी! मुझे उनके वर्ग शीघ्र बतलाओ ? ॥१५॥ हे अंकगणितज्ञ! मुझे शीघ्र बताओ कि १.१. १ और के वर्गमूल क्या होंगे ?॥१६॥ हे कुशल व्यक्ति ! मुझे भिन्नों के वर्गों से सम्बन्धित प्रश्नों में प्राप्त वर्गित राशियों के वर्गमूल तथा ६६ का वर्गमूल बतलाओ ॥१७॥ * ७००-३४८ के रूप में दर्शाया गया है। (१७) यहाँ २६ को मूल गाथा में १२
SR No.090174
Book TitleGanitsara Sangrah
Original Sutra AuthorMahaviracharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain, L C Jain
PublisherJain Sanskriti Samrakshak Sangh
Publication Year1963
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, & Maths
File Size35 MB
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