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________________ गणितसारसंग्रहः गुणसंकलितान्त्यधनानयने तत्संकलितधनानयने च सूत्रम् गुणसंकलितान्त्यधनं विगतैकपदस्य गुणधनं भवति । तगुणगुणं मुखोनं व्येकोत्तरभाजितं सारम् ॥९५॥ गुणधनस्योदाहरणम् स्वर्णद्वयं गृहीत्वा त्रिगुणधनं प्रतिपुरं संमार्जयति । यः पुरुषोऽष्टनगर्यां तस्य कियद्वित्तमाचक्ष्व । ९६ । गुणधनस्याद्युत्तरानयनसूत्रम् - गुणधनमादिविभक्तं यत्पदमितवधसमं स एव चयः । गच्छप्रमगुणघातप्रहृतं गुणितं भवेत्प्रभवः ॥९७॥ ३० ] गुणधनस्य गच्छानयन सूत्रम् - भक्ते गुणवत्ते यथा निरयं तथा गुणेन हृते । यावत्योऽत्र शलाकास्तावान् गच्छो गुणधनस्य ॥९८|| १ I समर्चयति । [ २.९५ गुणोत्तर श्रेढि के अंतिम पद तथा योग को निकालने का नियम गुणोत्तर श्रेढि का अंतिम पद अथवा अन्त्यधन, ( जिसमें पदों की संख्या एक कम होती है ऐसी ) दूसरी ढि, का गुणधन होता है । यह अन्त्यधन, साधारण निष्पत्ति द्वारा गुणित किया जाने पर तथा एक कम साधारण निष्पत्ति द्वारा विभाजित किया जाता है प्रथमपद द्वारा हासित किया जाता है, तो ढिका योग प्राप्त होता है ॥ ९५ ॥ उदाहरणार्थ प्रश्न किसी नगर में २ स्वर्ण मुद्राएँ प्राप्त कर एक मनुष्य एक नगर से दूसरे नगर को जाता है; और प्रत्येक स्थान में पिछले स्थानों से प्राप्त मुद्राओं से तिगुनी मुद्राएँ प्राप्त करता है । बतलाओ कि आठवें नगर में उसे कितनी मुद्राएँ मिलेंगी ? || ९६ ॥ किसी दिये गये गुणधन सम्बन्धी प्रथमपद और साधारण निष्पत्ति निकालने का नियम गुणधन जब प्रथमपद द्वारा विभाजित होता है तब वह ऐसी स्वगुणित राशि के गुणनफल के तुल्य हो जाता है जिस गुणन में कि वह राशि, पदों की संख्या की राशि बार ( वारंवार ) प्रकट होती है; और यह राशि चाही हुई साधारण निष्पत्ति है । गुणधन जब साधारण निष्पत्ति के वारंवार गुणन से प्राप्त गुणनफल द्वारा विभाजित किया जाता है - ( साधारण निष्पत्ति के वारंवार स्वगुणन से प्राप्त ऐसा गुणनफल जिसमें इस साधारण निष्पत्ति का वारंवार प्रकटपना, पदों की संख्या द्वारा मापा जाता है ) तब प्रथमपद प्राप्त होता है || ९७॥ किसी गुणोत्तर श्रेढि में दिये गये गुणधन सम्बन्धी पदों की संख्या निकालने का नियम ढि के गुणधन को प्रथमपद द्वारा विभाजित करो। तब इस भजनफल को साधारण निष्पत्ति द्वारा वारंवार तब तक विभाजित करो जब तक कि भाजनयोग्य कुछ न बच रहे । ऐसे वारंवार दिये गये भाग की संख्या का निरूपण करनेवाली शलाकाओं की संख्या जो भी हो वही दिये हुए गुणधन के सम्बन्ध में पदों की संख्या का मान होता है ||१८|| न - १ अर (९५) बीजीय रूप से, य = Xर - अ र - १ न - १ अन्त्यधन, गुणोत्तर श्रेटि के अंतिम पद के मान के तुल्य होता है; गुणधन के अर्थ और मान के लिये सूत्र ९३ देखिये । न पदों वाली गुणोत्तर श्रेढि का अन्त्यधन अर के तुल्य होता है, जब कि इसी श्रेढि का गुणधन अर" होता है । इसी तरह न - १ पदों वाली गुणोत्तर श्रेटि का अन्त्य धन अर के तुल्य होता है, होता है । यहाँ स्पष्ट है कि न पदों की श्रेढि का अन्त्यधन उतना ही वाली श्रेटि का गुणधन | न - २ न - १ जब कि गुणधन अर होगा जितना की न १ पदों न ( ९७, ९८ ) स्पष्ट है कि अर" में अ का भाग देने पर र" प्राप्त होता है, और यह र द्वारा ·
SR No.090174
Book TitleGanitsara Sangrah
Original Sutra AuthorMahaviracharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain, L C Jain
PublisherJain Sanskriti Samrakshak Sangh
Publication Year1963
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, & Maths
File Size35 MB
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