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________________ २८] गणितसारसंग्रहः [ २. ९१ विसदृशादिसदृशगच्छसमधनानामुत्तरानयनसूत्रम्अधिकमुखस्यैकचयश्चाधिकमुखशेषमुखविशेषो भक्तः । विगतैकपदार्धन सरूपश्च चया भवन्ति शेषमुखानाम् ॥९॥ अत्रोद्देशकः एकत्रिपञ्चसप्तनवैकादशवदनपञ्चपञ्चपदानाम् । समवित्तानां कथयोत्तराणि गणिताब्धिपारदृश्वन गणक ||९२।। ___ अथ गुणधनगुणसंकलितधनयोः सूत्रम्पदमितगुणहतिगुणितप्रभवः स्याद्गणधनं तदाबूनम् । एकोनगुणविभक्तं गुणसंकलितं विजानीयात् ।।९३।। ऐसी समान्तर श्रेढियों के प्रचयों को निकालने का नियम जिनमें प्रथम पद विसदृश, पदों की संख्या सदृश और योग बराबर हों-- जिसका प्रथमपद सबसे बड़ा हो उस श्रेढि का प्रचय एक लेते हैं। इस सबसे बड़े प्रथमपद और शेष श्रेढियों में से प्रत्येक के प्रथमपद के अन्तर को एक कम पदों की संख्या की आधी राशि द्वारा विभाजित करते हैं और इस प्रकार प्रत्येक दशा में प्राप्त भजनफल में एक मिलाते हैं। इस तरह, भिन्न-भिन्न शेष श्रेढियों के प्रचयों को प्राप्त करते हैं ॥११॥ उदाहरणार्थ प्रश्न हे गणितरूपी समुद्र के दूसरे किनारे का दर्शन करने वाले गणक ! उन सब बराबर योगवाली श्रेढियों के प्रचयों को निकालो जिनके प्रथमपद १,३,५,७,९ और ११ हों तथा पदों की संख्या ( प्रत्येक में ) ५ हो.॥९२॥ गुणधन और गुणोत्तर श्रेढि का योग निकालने की विधि गुणोत्तर श्रेढि के प्रथमपद को जब ऐसी वारंवार स्वतः से गुणित साधारण निष्पत्ति द्वारा गुणित करते हैं, जहाँ इस गुणनफल में श्रेढि के पदों की संख्या द्वारा साधारण निष्पत्ति की वारंवारता ( frequency ) को मापा जाता है; तब गुणधन प्राप्त होता है। यह गुणधन जब प्रथमपद द्वारा हासित किया जाता है तथा एक कम साधारण निष्पत्ति द्वारा विभाजित किया जाता है तब गुणोत्तर श्रेढि का योग प्राप्त होता है ॥९३।। (९१) इस दशा में साधारण सूत्र (formula) यह है : ब, = +ब, जहाँ कि ब का (न -१)२ मान इस नियम में १ लिया गया है। (९३) न पदों की गुणोत्तर श्रेढि का गुणधन (न+१) वें पद के तुल्य होता है, जब कि श्रेढि संतत रहती है । बीजीय रूप से, इस गुणधन की अर्हा ( र ४र४ र......न गुणन खंडों तक अ) अर्थात् (अन) होती है, जहाँ कि "र" साधारण निष्पत्ति है । इसकी तुलना उत्तरधन से कर सकते हैं । योग निकालने का नियम बीजीय रूप से यह है । अर -अ -, जहाँ अ प्रथम पद है, र साधारण निष्पत्ति है और न पदों की संख्या है ।
SR No.090174
Book TitleGanitsara Sangrah
Original Sutra AuthorMahaviracharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain, L C Jain
PublisherJain Sanskriti Samrakshak Sangh
Publication Year1963
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, & Maths
File Size35 MB
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