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________________ [२७ -२. ९०] परिकर्मव्यवहारः अत्रोद्देशकः पश्चाष्टगच्छपुंसोय॑स्तप्रभवोत्तरे समानधनम् । द्वित्रिगुणादिधनं वा ब्रूहि त्वं गणक विगणय्य ॥८७॥ द्वादशषोडशपदयोय॑स्तप्रभवोत्तरे समानधनम् । द्व्यादिगुणभागधनमपि कथय त्वं गणितशास्त्रज्ञ ।।८८।। असमानोत्तरसमगच्छसमधनस्याद्युत्तरानयनसूत्रमअधिकचयस्यैकादिश्चाधिकचयशेषचयविशेषो गुणितः । विगतैकपदार्धेन सरूपश्च मुखानि मित्र शेषचयानाम् ॥८९।। अत्रोद्देशकः एकादिषडन्तचयानामेकत्रितयपञ्चसप्तचयानाम् । नवनवगच्छानां समवित्तानां चाशु वद मुखानि सखे ॥९०।। १ M गणकमुखतिलक । ___ उदाहरणार्थ प्रश्न दो मनुष्यों के धन क्रमशः दो समान्तर श्रेढियों के योग से ज्ञात होते हैं। श्रेढियों-सम्बन्धी पदों की संख्या ५ और ८ है । दोनों श्रेढियों के प्रथम पद और प्रचय परस्पर बदलने योग्य हैं । श्रेढियों के योग बराबर हैं अथवा उनमें से एक का योग दूसरे का दुगुना, तिगुना, आधा अथवा ऐसा ही कोई अपवर्त्य है । हे गणितवेत्ता, शुद्ध गणना के पश्चात् बतलाओ कि इन योगों के तथा परस्पर बदलने योग्य प्रथमपद और प्रचय के मान क्या हैं? ॥८७॥ दो समान्तर श्रेढियों के सम्बन्ध में, जिनके पदों की संख्या १२ और १६ है, प्रथमपद और प्रचय परस्पर बदलने योग्य हैं। श्रेढियों के योग बराबर हैं अथवा उनमें से एक का योग दुगुना अथवा कोई ऐसा ही अपवर्त्य अथवा भाग है। हे गणितशास्त्रज्ञ बतलाओ कि इन योगों के तथा परस्पर बदलने योग्य प्रथमपद और प्रचय के मान क्या होंगे ? ॥८॥ असमान प्रचयों, समगच्छ और समयोग धनवाली समान्तर श्रेढियों के प्रथम पद प्राप्त करने का नियम जिसका प्रचय सबसे बड़ा है ऐसी श्रेढि का प्रथमपद एक ले लिया जाता है। इस सबसे बड़े प्रचय और शेष प्रचय के अन्तर को एक से हासित गच्छ की आधी राशि द्वारा गुणित करते हैं । जब इस गुणनफल में एक मिलाते हैं तो हे मित्र हमें शेष प्रचय वाली श्रेढियों के प्रथमपद प्राप्त होते हैं ॥८९॥ उदाहरणार्थ प्रश्न हे सखे ! बराबर योग वाली दो श्रेढियों के प्रथमपदों को बतलाओ जब कि उनमें से प्रत्येक में ९ गच्छ है तथा प्रचय क्रमशः १ से आरम्भ होकर ६ तक एक दशा में और १, ३, ५ और ७ दूसरी दशा में हो ॥९॥ (८९) यहाँ दिया गया हल साधारण नियम की विशेष दशा है । अ, =न-(ब, - ब) + अ, जहाँ अ और अ, दो श्रेढियों प्रथमपद हैं: ब और ब, उनके संवादी प्रचय हैं । इस सूत्र ( formula) में, जहाँ ब, ब, और न दिये गये हैं: अ, का मान अ के किसी मान को चुन लेने पर निकाला जा सकता है। इस नियम में अ का मान १ लिया गया है।
SR No.090174
Book TitleGanitsara Sangrah
Original Sutra AuthorMahaviracharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain, L C Jain
PublisherJain Sanskriti Samrakshak Sangh
Publication Year1963
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, & Maths
File Size35 MB
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