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गणितसारसंग्रहः
अत्रोद्देशकः
एकादिदशान्ताद्यास्तावत्प्रचयास्समर्चयन्ति धनम् । वणिजो दश दश गच्छास्तेषां संकलितमाकलय ||६५||
द्विमुखत्रिचयैर्मणिभिः प्रानर्च श्रावकोत्तमः कश्चित् । पञ्चवसतीरमीषां का संख्या ब्रूहि गणितज्ञ ||६६|| आदिस्त्रयश्चयोऽष्टौ द्वादश गच्छस्त्रयोऽपि रूपेण । आ सप्तकात्प्रवृद्धाः सर्वेषां गणक भण गणितम् ॥ ६७॥ द्विकृतिमुखं चयोऽष्टौ नगरसहस्रे समर्चितं गणितम् । गणिताब्धिसमुत्तरणे बाहुबलिन्' त्वं समाचक्ष्व ||६८||
गच्छानयनसूत्रम् -
[ २.६५
अष्टोत्तरगुणराशेर्द्विगुणाद्युत्तरविशेषकृतिसहितात् । मूलं चययुतमर्धितमाद्यूनं चयहृतं गच्छः ॥६९॥ प्रकारान्तरेण गच्छानयनसूत्रम् - अष्टोत्तरगुणराशेर्द्विगुणाद्युत्तर विशेषकृति सहितात् । मूलं क्षेपपदोनं दलितं चयभाजितं गच्छः ॥७०॥।
१ M बली ।
उदाहरणार्थ प्रश्न
द व्यापारियों में से प्रत्येक समान्तर श्रेढि में संकलित धन दान करता है। दस श्रेढियों के प्रथम पद एक से लेकर दस तक हैं, और प्रत्येक श्रेढि में प्रचय उतना ही है जितनी कि उनकी प्रथम पद राशि । प्रत्येक श्रेढि के पदों की संख्या दस है । उन श्रेढियों के योगों की गणना करो || ६५ || एक श्रेष्ठ श्रावक एक-एक कर पाँच मन्दिरों में २ मणियों से आरम्भ कर उत्तरोत्तर ३ मणि बढ़ाता हुआ भेंट चढ़ाता है । हे गणितज्ञ ! कहो कि उनकी कुल संख्या क्या है ? || ६६ || प्रथम पद ३ है; प्रचय ८ हैं; और पदों की संख्या १२ : । ये तीनों राशियाँ क्रम से एक द्वारा बढ़ाई जाती हैं जब तक कि ७ श्रेढियाँ प्राप्त नहीं होतीं । हे गणितज्ञ ! इन सब श्रेढियों के योगों को प्राप्त करो || ६७ || हे गणितरूपी समुद्र को भुजाओं द्वारा तरने में समर्थ ! बतलाओ कि १००० नगरों में की जाने वाली समस्त भेटों का मान क्या होगा, जब कि भेंट ४ से आरम्भ की जाती है और उत्तरोत्तर ८ से वृद्धि को प्राप्त होती है ॥ ६८ ॥
समान्तर श्रेढि के पदों की संख्या ( गच्छ ) निकालने का नियम
( प्रथम पद की दुगुनी ) राशि और प्रचय के अन्तर के वर्ग में श्रेढि के योग द्वारा गुणित प्रचय की आठगुनी राशि जोड़ते हैं । प्राप्त योगफल के वर्गमूल में प्रचय जोड़ते हैं और परिणामी राशि आधी करते हैं । इसे प्रथम पद द्वारा हासित कर प्रचय द्वारा विभाजित करते हैं तो श्रेढि के पड़ों की संख्या प्राप्त होती है ॥ ६९ ॥
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दूसरी रीति द्वारा पदों की संख्या निकालने का नियम
( प्रथम पद की दुगुनी ) राशि और प्रचय के अन्तर के वर्ग में, श्रेदि के योग द्वारा गुणित प्रचय की अठगुनी राशि जोड़कर प्राप्त योगफल के वर्गमूल में से क्षेपपद को घटाते हैं । परिणामी राशि को आधा करते हैं । इसे प्रचय द्वारा विभाजित करने पर श्रेदि के पदों की संख्या प्राप्त होती हैं ॥ ७० ॥ (६६) श्रावक जैनधर्म के गृहस्थ धर्म के गृहस्थ धर्म का पालन करने वाला होता है, जो केवल श्रवण करता अर्थात् धर्म या कर्तव्य के विषय में सुनता और सीखता है । सामान्यतः पाक्षिक श्रावक को मिथ्यात्व, अन्याय एवं अभक्ष्य का त्याग होता है । (६९) बीजगणित से यह नियम इस भाँति प्ररूपित होगा-
V (रअ - ब ) + ८ ब य + ब - अ
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= न
ब
२अ - ब
(७०) (प्रथम पद की दुगुनी राशि और प्रचय के अंतर की आधी राशि क्षेपपद कहलाती है । अर्थात्, 'यह स्पष्ट है कि इस सूत्र में क्षेपपद का उल्लेख होने से पिछले सूत्र से मात्र उल्लेख में भिन्नता है ।
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