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________________ -२. ६४] परिकर्मव्यवहारः [ ૨૧ आद्युत्तरसर्वधनानयनसूत्रम्-- पदहतमुखमादिधनं व्येकपदार्थम्नचयगुणो गच्छः । उत्तरधनं तयोर्योगो धनमूनोत्तरं मुखेऽन्त्यधने ।।६३॥ अन्यधनमध्यधनसर्वधनानयनसूत्रम्चैयगुणितैकोनपदं साद्यन्त्यधनं तदादियोगार्धम् । मध्यधनं तत्पदवधमुद्दिष्टं सर्वसंकलितम् ॥६४।। ? M तदूना सैक (व ? ) पदाप्ता युतिः प्रभावः । २ यह श्लोक M में छूट गया है। आदिधन, उत्तरधन और सर्वधन निकालने का नियम --- प्रथम पद में श्रेढि के पदों की संख्या का गुणन करने से प्राप्त राशि आदिधन कहलाती है। प्रचय द्वारा गणित श्रेढि के पदों की संख्या तथा एक कम पदों की संख्या की आधी राशि का गुणनफल उत्तर धन कहलाता है। इन दोनों का योग सर्वधन अर्थात् समस्त श्रेढि के पदों का योग होता है । वही ऐसी श्रेदि के योग के तुल्य भी होता है जो श्रेढि के पदों का क्रम उलट दिया जाने से प्राप्त होती है, जहां अंतिम पद प्रथम पद हो जाता है तथा प्रचय ऋणात्मक हो जाता है ॥६३॥ अन्त्यधन, मध्यधन तथा सर्वधन निकालने की विधि श्रेढि के पदों की संख्या एक द्वारा हासित की जाती है और प्राप्त संख्या प्रचय द्वारा गुणित की जाती है । तब इसे प्रथम पद में जोड़ने पर अन्त्यधन प्राप्त होता है। अन्त्यधन और प्रथम पद के योग की आधी राशि मध्यधन कहलाती है। इस मध्यधन और श्रेढि के पदों की संख्या का गुणनफल, श्रेढि के समस्त पदों का योग होता है ॥६॥ (६३-६४) इन नियमों में समान्तर श्रेढि का प्रत्येक पद, प्रथम पद में प्रचय का गुणक जोड़ने पर प्राप्त हुआ माना जाता है। इस गुणक का मान श्रेदि में पद विशेष की स्थिति पर निर्भर रहता है। इस अवधारणा के अनुसार हमें श्रेदि के प्रत्येक पद में प्रथम पद के साथ-साथ प्रचय का गुणक भी निकालना पड़ता है। इस तरह प्राप्त प्रथम पदों के योग को आदिधन कहते हैं। प्रचय के ऐसे गुणकों के योग को उत्तरधन कहते हैं। सर्वधन जो कि इन दोनों का योग होता है, श्रेढि का भी योग होता है । अन्त्यधन, समान्तर श्रेढि का अंतिम पद होता है। मध्यधन का अर्थ मध्यपद होता है जो इस श्रेढि के प्रथम पद और अंतिम पद का समान्तर-मध्यक (arithmetical mean ) होता है। इस तरह, जब श्रेढि में (२ न+१) पद होते हैं तब (न+ १) वाँ पद मध्यधन कहलाता है। परंतु, जब २न पद होते हैं, तो (न) वें और (न+ १) ३ पद के समान्तर-मध्यक के तुल्य मध्यधन होता है। इस तरह, (१) आदिधन =न X अ; (२) उत्तरधन =1 x न ४ ब; (३) अन्त्यधन = (न - १) ४ ब + अ; ++(५) सर्वधन = (१) + (२) = (न+अ) + (२४न ब). अथवा, सर्वधन = (४)xन =न x {(न - १) व+अ}+ अ आगे यह बिलकुल स्पष्ट है कि ऋणात्मक प्रचय वाली समान्तर श्रेढि धनात्मक प्रचय वाली समान्तर श्रेदि में बदल जाती है जब कि पदों का क्रम पूरी तरह उल्टाया जाता है जिससे प्रथम पद अंतिम पद हो जाता है। न - १ (४) मध्यधन = (न- १)व + अ) + अ (४) मध्यधन % २ २ - होता है।
SR No.090174
Book TitleGanitsara Sangrah
Original Sutra AuthorMahaviracharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain, L C Jain
PublisherJain Sanskriti Samrakshak Sangh
Publication Year1963
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, & Maths
File Size35 MB
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