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________________ २० ] गणित सारसंग्रहः चतुः पयोध्यग्निशराक्षिदृष्टिहये भखव्योमभयेक्षणस्य । दाष्टकर्माब्धिखघातिभावद्विवह्निरत्नर्तुनगस्य मूलम् ॥५७॥ द्रव्याश्वशैलदुरितखवह्नयद्रिभयस्य वदत घनमूलम् । नवचन्द्र हिम गुमुनिशशिलब्ध्यम्बरखरयुगस्यापि ॥५८॥ गतिगजविषयेषुविधुस्वराद्रिकरगतियुगस्य भण मूलम् । लेख्याश्वनगनवाचलपुरखरनयजीवचन्द्रमसाम् ॥५९॥ गतिखरदुरितेभाम्भोधितार्क्ष्यध्वजाक्षद्विकृति नवपदार्थद्रव्यवह्नीन्दुचन्द्रजलधरपथरन्ध्रेष्टकानां घनानां गणक गणितदक्षाचक्ष्व मूलं परीक्ष्य || ६०|| इति परिकर्मविधौ षष्ठं घनमूलं समाप्तम् । संकलितम् [ २.५७ सप्तमे संकलित परिकर्मणि करणसूत्रं यथा- रूपेणोनो गच्छो दलीकृतः प्रचयताडितो मिश्रः । प्रभवेण पदाभ्यस्तः संकलितं भवति सर्वेषाम् ॥ ६१ ॥ प्रकारान्तरेण धनानयनसूत्रम् एकविहीनो गच्छः प्रचयगुणो द्विगुणितादिसंयुक्तः । गच्छाभ्यस्तो द्विहृतः प्रभवेत्सर्वत्र संकलितम् ॥ ६२। १ यह श्लोक M में अप्राप्य है । २७००८७२२५३४४ और ७६३२९४०४८८ के घनमूल प्राप्त करो ।। ५७ ।। ७७३०८७७६ और २६०९१७११९ के भी घनमूल निकालो ।। ५८ ।। २४२७७१५५८४ और १६२६३७९७७६ के घनमूल निकालो || ५९॥ हे गणक ! यदि तुम गणित में कुशल हो तो ८५९०११३६९९४५९४८८६४ घनराशि का घनमूल परीक्षा से निकालकर बतलाओ ॥ ६० ॥ इस प्रकार, परिकर्म व्यवहार में घनमूल नामक परिच्छेद समाप्त हुआ । संकलित [ श्रेढियों का संकलन ] परिकर्म क्रियाओं में सप्तम संकलित क्रिया सम्बन्धी नियम निम्नलिखित है पहिले श्रेदि के पदों की संख्या को एक द्वारा घटाया जाता है और तब प्राप्त फल को आधा कर प्रचय द्वारा गुणित किया जाता है । इसे, जब श्रेढि के प्रथम पद के साथ मिलाकर पदों की संख्या से गुणित करते हैं तो समान्तर श्रेढि के समस्त पदों का योग प्राप्त होता है || ६१ ॥ दूसरी तरह से श्रेढि का योग प्राप्त करने का नियम श्रेढि के पदों की संख्या को एक द्वारा हासित कर प्रचय द्वारा गुणित करते हैं । प्राप्त फल में के प्रथम पद की दुगुनी राशि मिलाते हैं; और जब इस योग को श्रेढि के पदों की संख्या से गुणित कर दो से भाजित करते हैं, तो सर्वत्र श्रेढि का योग उत्पन्न होता है ॥६२॥ न - १ (६१) यह नियम बीजीयरूप से निम्नलिखित रूप में प्रदर्शित किया जा सकता है'ब + अ न = य, जहाँ अ प्रथम पद है; ब प्रचय है, न पदों की संख्या है और य समस्त श्रेदि का योग है । - ( ६२ ) इसी तरह, { { (न – १)ब + २ अ } न=य होता है । २
SR No.090174
Book TitleGanitsara Sangrah
Original Sutra AuthorMahaviracharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain, L C Jain
PublisherJain Sanskriti Samrakshak Sangh
Publication Year1963
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, & Maths
File Size35 MB
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