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-२. ५६]
परिकर्मव्यवहारः
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घेनमेकं द्वे अपने घनपदकृत्या भजेत्रिगुणयाघनतः। पूर्वत्रिगुणाप्तकृतिस्त्याज्याप्तघनश्च पूर्ववल्लब्धपदैः ॥५४॥
अत्रोद्देशकः एकादिनवान्तानां घनात्मनां रत्नशशिनवाब्धीनाम् । नगरसवसुख गजक्षपाकराणां च मूलं किम् ।।५५।। गतिनयमदशिखिशशिनां मुनिगुणखत्वेक्षिनवखराग्रीनाम् । वसुखयुगखाद्रिगतिकरिचन्द्रतूंनां गृहाण पदम् ।।५६।।
१ यह श्लोक 1 में प्राप्य नहीं है । २ M गिरि । ३ ॥ रसा । ४ । विधुपुरखरस्वरर्तुज्वलनधराणां । तीन अंकों के विभिन्न समूह में से एक अंक घन ( cubic) और दो अघन ( non-cubic) होते हैं। अघन अंक में घनमूल के वर्ग की तिगुनी राशि का भाग दो। अग्रिम अघन अंक में से. ऊपर प्राप्त हए भजनफल को वर्गित करने से प्राप्त हुई राशि तथा पिछले घन अंक में से (घटाई गई अधिक से अधिक घनसंख्या के) घनमूल की तिगुनी राशि का गुणनफल घटाओ। और तब अग्रिम घन अंक को स्थिति में लाकर, उसमें से ऊपर प्राप्त हुए भजनफल का घन घटाओ। इस तरह स्थिति में लाकर प्राप्त हुए घनमूल अंकों की सहायता से पूर्व विधि उपयोग में लाओ ॥५४॥
उदाहरणार्थ प्रश्न १ से लेकर ९ तक की धन संख्याओं के घनमूल क्या होंगे? ४९१३ और १८६०८६७ के घनमूल बतलाओ ? ॥५५॥ १३८२४, ३६९२६०३७ और ६१८४७०२०८ के घनमूल निकालो ॥५६॥
(५३-५४) जिसका घनमूल निकालना होता है ऐसी दी गई संख्या में अंक नियमानुसार समूहों में विभक्त कर दिये जाते हैं। प्रत्येक समूह में अधिक से अधिक ३ अंक होते हैं। उनके नाम क्रमशः दाहिनी ओर से बाँई ओर : घन ( अथवा वह जो धनात्मक होता है अर्थात् जिसमें से घन राशि घटाना होती है), शोध्य (अथवा वह जो घटाया जाता है) और भाज्य हैं। बाँई ओर का अंतिम समूह हमेशा तीन अंकमय नहीं होता। उसमें एक, दो, या तीन अंक तक रहते हैं। निम्नलिखित साधित उदाहरण से नियम स्पष्ट हो जावेगा। ७७३०८७७६ का घनमूल निकालना
शो. घ. भा. शो. घ. भा. शो. घ.
६ ४
घ.........४३ = भा......४२४३
यह नियम उल्लेख नहीं करता कि कौन से अंक घनमूल की संरचना करते हैं । पर यह अर्थ किया जाता है कि क्रिया में घन किये गये अंकों को क्रम से बाँई ओर से दाहिनी ओर रखने संख्या (घनमूल) प्राप्त होती है।
३७० शो...२२४३४४...
= ४८
३२२८ घ......२२....... भा......४२२ ४ ३.. =५२९२) ३२२०७ (६
३१७५२
शो...६२४३४४२......
......
=४५३६
२१६ २१६
घ....६३........
.....=
::.घनमूल = ४२६ ।