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________________ गणितसारसंग्रहः [२.३० द्विस्थानप्रभृतीनां राशीनां सर्ववर्गसंयोगः । तेषां क्रमघातेन द्विगुणेन विमिश्रितो वर्गः ॥३०॥ कृत्वान्त्यकृतिं हन्याच्छेषपदैर्द्विगुणमन्त्यमुत्सार्य । शेषानुत्सायैवं करणीयो विधिरयं वर्गे ॥३१॥ अत्रोद्देशकः एकादिनवान्तानां पञ्चदशानां द्विसंगुणाष्टानाम् । व्रतयुगयोश्च रसाग्न्योः शरनगयोर्वर्गमाचक्ष्व ॥३२।। साष्टाविंशत्रिशती चतुःसहस्बैकषष्टिषट्छतिका । द्विशती षट्पञ्चाशन्मिश्रा वर्गीकृता किं स्यात् ।।३।। लेख्यागुणेषुबाणद्रव्याणां शरगतित्रिसूर्याणाम्। गुणरत्नाग्निपुराणां वर्ग भण गणक यदि वेत्सि ॥३४।। तथा उन संख्याओं को एक बार में दो लेकर उनके दुगुने गुणनफल के योग को मिलाने के बराबर होता है॥३०॥ दाहिनी ओर से बाई ओर को अङ्क गिनने के क्रम में संख्या के अन्तिम अङ्क का वर्ग प्राप्त करो, और तब इस अङ्क को द्विगुणित कर तथा एक संकेतना के स्थान तक दाहिनी ओर हटा देने के पश्चात् , इस अन्तिम अङ्क को शेष स्थानों के अङ्कों द्वारा गुणित करो। इस तरह संख्या के शेष अङ्कों में प्रत्येक को एक-एक स्थान तक इसी विधि से हटाते जाओ । यह वर्ग करने की विधि है॥३१॥ उदाहरणार्थ प्रश्न से लेकर ९ तक तथा १५, १६, २५, ३६ और ७५-इन संख्याओं के वर्ग का मान निकालो ॥३२॥ ३३८,४६६१ और २५६ का वर्ग करने पर क्या-क्या प्राप्त होगा ? ॥३३॥ हे गणितज्ञ ! यदि तुम जानते हो तो बतलाओ कि ६५५३६, १२३४५ और ३३३३ के वर्ग क्या होंगे? ॥३४॥ (३०) यहाँ स्थान शब्द का स्पष्ट अर्थ संकेतना स्थान होता है। यहाँ एक टीका के निर्वचन के अनुसार वह योग के विघटकों का भी द्योतक है, क्योंकि योग में प्रत्येक ऐसे भाग का स्थान होता है। इन दोनों निवर्चनों के अनुसार नियम ठीक उतरता है। जैसे : (१२३४)२ = (१०००२ + २००२+३०२+४२) + २४१०००४ २०० + २४ १००० ४३० +२४१००० ४४ + २४ २००४ ३० + २४ २००४४ + २४३०४४ इसी तरह, (१+२+३+४)२ = (१२+२+३२ + ४२) + २(१४२+१४३ + १४४ +२४३+२४४+३४४) (३१) निम्नलिखित साधित उदाहरणों द्वारा दाहिने ओर हटाने का उल्लिखित नियम स्पष्ट हो जावेगा। यह महावीर की मौलिक विधि है। इन गणनाओं में स्तम्भों का योग इस प्रकार किया जावे कि किसी भी स्तम्भ के दहाई के अंक बांई ओर के स्तम्भ में जोड़े जावें । १३१ का वर्ग निकालना १३२ का वर्ग करना ५५५ का वर्ग करना। १२= ५२= २४१४३ = २४१४३= २४५४५= २४१x१= २x२x२% २४५४५% ॥ २४३४१ ॥ २४३४२% २४५४५%3 २२ = १७ १६१ १७४२४ । ३०८० २५ (३३) मूल गाथा में ४६६१ को ४०००+६+६०० द्वारा निरूपित किया गया है।
SR No.090174
Book TitleGanitsara Sangrah
Original Sutra AuthorMahaviracharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain, L C Jain
PublisherJain Sanskriti Samrakshak Sangh
Publication Year1963
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, & Maths
File Size35 MB
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