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क्योंकि पिथेगोरीय वर्ग ने बिन्दु having position ) के रूप
में
गणित सारसंग्रह
अथवा प्रदेश की परिभाषा, “स्थिति वाला एकक" ( unit स्थापित की थी ।*
इन दो तर्कों के आधार पर, वीरसेन की शैली में, "परन्तु ऐसा है नहीं” यह अन्यथा युक्ति खंडन ( अनिष्ट प्रदर्शन ) विधि, जिनागम प्रणीत उक्त तथ्यों की पुष्टि करने की विधियों के समान प्रतीत होती है । अथवा ऐसा मालूम पड़ता है मानो सीमित क्षेत्र में संख्यात या असंख्यात (परिमित ) प्रदेश संख्या राशि की पुष्टि करने के लिये ही ये तर्क प्रस्तुत किये गये हैं । आगे, एरिस्टाटिल के शब्दों में जीनो के अंतिम दो तर्क ये हैं-(३) बाज ( The Arrow ) :- - "यदि, जीनों का कथन है, प्रत्येक वस्तु या तो स्थिर है गति क्रिया में परिणत है ( गमन में है ) जब कि वह ( स्वतः ) के समान आकाश को व्याप्त करती है, जब कि वह गतिवान् वस्तु उसी क्षण ( in the now ) में सदा है, तो गतिवान् बाण स्थिर है ( गतिवान् नहीं है )
( ४ ) क्रीड़ांगन ( The Stadium ) : - " चौथा तर्क समान वस्तुओं की समान संख्या वाली दो पंक्तियों के सम्बन्ध में है जो किसी दौड़ क्षेत्र में समान प्रवेग से विरुद्ध दिशाओं में एक दूसरे का अतिक्रमण करती हैं, एक पंक्ति क्षेत्र के अंत से तथा दूसरी मध्य से प्रस्थान करती हैं। यह, वह सोचता है, इस उपसंहार पर पहुँचाती है कि दत्त समय का अर्द्ध भाग, द्विगुणित के तुल्य होता है
*
वीरसेनाचार्य ने व्यवहारकाल की अंत्य महत्ता को अविभागी समय में परमाणु की गमनशीलता के आधार पर प्रस्तुत किया है,
" एक परमाणु का दूसरे परमाणु के व्यतिक्रम करने में जितना काल लगता है, हैं। चौदह राजु आकाश प्रदेशों के अतिक्रमण मात्र काल से जो अतिक्रमण करने में उसके एक परमाणु अतिक्रमण करने के काल का नाम समय है ।" ()
* Ibid. p. 278.
↑ Ibid. p. 276.
इस प्रकार लोकान्त से लोकाग्र तक प्रत्येक बिन्दु पर से जाने वाले परमाणु के गुजरने की घटना, प्रत्येक प्रदेश पर स्थित घड़ी, तथा गमनशील परमाणु में स्थित ऐसी ही घड़ी (१), वही "एक अविभाज्य समय, तत्क्षण,” बतलावेगी जिस 'एक समय' में वह पुद्गल परमाणु, गमनरूप क्रिया में परिणत हुआ, लोकाग्र पर जाकर, स्थिर पर्याय को प्राप्त होता है। इस प्रकार प्रत्येक प्रदेश से गुजरने की एक समय कालीन घटना में युगपतत्व का समावेश है । व्यवहार से, काल के अनन्त समय, वर्तमान काल को एक समय मानकर बतलाए गये हैं। निश्चय नय से अमूर्त, अप्रदेशी काल द्रव्य वर्तना का कारण होने से, तथाप्रति समय अनन्त वर्तनाएँ होने से, मुख्य कालाणु अनन्त समय वाला भी माना गया है।[] काल की अंत्य प्रमाण छोटी पर्याय से घिरे हुए काल को समय बतलाया गया है ।
ऐसे अविभागी [ क्योंकि कोई प्रर्याय के बदलने में सृष्टि में होने वाली 'पर्यायांतरी क्रिया में ',
उसे समय कहते समर्थ परमाणु है,
+ Ibid. p. 276.
() षट खडांगम पु० ४, पृ० ३१८ |
[] तत्वार्थराजवार्तिक, अध्याय ५, पृ० ४३४ ( पन्नालाल, वाकलीवाल )