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________________ प्रस्तावना एक समय से कम काल नहीं लगता ] समय में ऊर्ध्वगमनत्व स्वभाववाला सिद्धात्मा, मध्य लोक से लोकाम स्थित सिद्ध शिला पर पहुँच जाता है। इसी प्रकार एक ही समय में ईयपथ आसव में कमों का आना, आत्मा से स्पर्श करना और निर्जरित हो जाना तथा चार समय से पहिले मरणांतिक समुद्रात में आत्मा के प्रदेशों का अनुश्रेणि विग्रह गति से लोक में स्थित किसी भी प्रदेश स्थित जन्म स्थान का स्पर्श करना और चार समय में दंड, कपाट, प्रतर एवं लोकपूरण क्रिया का होना, ये सब क्रियाएँ, अथवा पर्यायों में अंतर आदि का एक समयवर्ती होने का ज्ञान जीनो के उक्त असद्भासों का विषय बन जाता है; कि क्या इन पर्यायों अथवा क्रियाओं से भी कोई सूक्ष्मतर पर्यायें नहीं होती हैं, जो ज्ञान में आ सकें, क्योंकि वे एक समय के अवक्तव्यम् भाग (१) में घटित होती हैं। क्रिया की परिभाषा श्री अकलंक देव द्वारा निम्न रूप में प्रस्तुत है, "उभय निमित्तापेक्षः पर्याय विशेषो द्रव्यस्य देशांतर प्राप्ति हेतुः क्रिया ॥" # 29 ऐसा समझा जाता है कि उपरोक्त तर्क संतत महत्ताओं की अविभाज्य तत्वों द्वारा संरचना की कल्पना के विरुद्ध हैं।, परन्तु ऐसा प्रतीत होता है मानो तृतीय असद्भास अविभागी समय के खंडन के लिए नहीं है, वरन् उस एक समय में “१४ राजु जो देशान्तर माति है, वह केवल स्थिरता अथवा गतिवान् रूपादि अनेक अलग-अलग वर्तनाएँ रूप नहीं है, वरन् उन वर्तनाओं का एक समय में एक पर्याय परिवर्तन रूप होना है", इस प्रकार के होने वाले पर्याय परिवर्तन की सम्भाव्यता की पुष्टि के लिए है । कारण यह है कि गतिवान् बाण की एक समय में स्थिरता और गमन रूप होना स्वाभाविक प्रतीत होता है, और एक-एक प्रदेश पर गुजरते हुए उसका गमन रूप रहते हुए स्थिर कहना न्याय संगत नहीं है; वरन् उस एक समय में सहसा ७-१४ राजु प्रमाण प्रदेश राशि का शीघ्र बाण के समान अतिक्रमण करते हुए लोकाय पर जाकर स्थिरता पर्याय का ग्रहण करना अस्वाभाविक इसलिये प्रतीत हो कि समय अविभाज्य है, पर इस वर्तमान काल रूप एक समय में ऐसा होता है - "नहीं तो वह बाण चलता ही नहीं", तर्क से अवस्थित ( established ) आभासित होता है। चतुर्थ तर्क सम्भवतः उक्त समय ( now ) के आधार पर उपस्थित हुआ प्रतीत होता है। हमारी समझ में यहाँ यह प्रश्न उठाया गया है कि एक परमाणु का दूसरे परमाणु का व्यतिक्रमण करते समय, अथवा १४ राजु में स्थित प्रदेशों का अतिक्रमण करते समय, उस एक समय में प्रदेश की सीमा का उल्लंघन करते समय, अथवा एक साथ असंख्यात प्रदेशों का उल्लंघन करते समय, उक्त समय के विभाजित हो जाने की कल्पना न्यायसंगत है, अथवा नहीं? ऐसा प्रतीत होता है, मानो ज़ीनो ने 'एक समय' की अविभाज्यता की कल्पना को न्यायसंगत बतलाने के लिए यह असद्भा उल्लिखित किया हो कि क्या कोई समय का अर्द्धमान उसके द्विगुणित प्रमाग के तुल्य होता है ? जो कुछ हो, वर्द्धमान महावीर के तीर्थ में परम्परागत अनुगमों में प्रचुर मात्रा में प्रयुक्त ये तथ्य हमें विश्वबंधुत्व के प्रागण में हुए सम्भावित आदान-प्रदान की सलकें प्रस्तुत करते प्रतीत होते हैं। हम अभी यह भी नहीं कह सकते कि यूनानियों द्वारा शंकु के छेद ( काट) से प्राप्त विभिन्न छेदों ( sections ) के गहन अध्ययन की प्रेरणा सूर्य, चंद्रादि के सुमेद के परितः समापन, असमापन * देखिये वही, पृ० ८४, अ०५, सूत्र ७/१ + T. Hoath Greek History of Mathematics, Vol.] (1), p. 278 (1921) तत्वार्थ राजवार्तिक, अ०५, ०२४।२६
SR No.090174
Book TitleGanitsara Sangrah
Original Sutra AuthorMahaviracharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain, L C Jain
PublisherJain Sanskriti Samrakshak Sangh
Publication Year1963
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, & Maths
File Size35 MB
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