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________________ प्रस्तावना 27 इसके साथ ही सत्य के पुजारी और विष प्याले के ग्राहक सॉक्राटीज़ (Socrates, 469-399 B.C.) सम्बन्धी अभ्युक्ति भी विचारणीय है, "Here we have, first of all, an unmistakable attack made by the youthful Socrates on the paradoxes of Zeno. He perfectly understands their drift, and Zeno himself is supposed of to admit this. But they appear to him, as he says in the Philebus also to be rather truisms than paradoxes."* एरिस्टाटिल के शब्दों में प्रथम दो तर्क निम्नलिखित हैं: (१) डाइकॉटोमी ( Dichotomy):-कोई भी गमन नहीं होता, क्योंकि जिसे गति क्रिया रूप में परिणत किया जाता है उसे अंत में पहुँचने के पूर्व (दरी के ) मध्य में पहुँचना पड़ेगा' ( और उस अर्द्ध भाग को तय करने के पूर्व अर्द्ध का अर्द्ध भाग तय करना होगा और इस प्रकार अनन्त तक ) (२) आकिलीज़ ( The Achilles ) 'कथन है कि मन्द गतिवान को तीव्र गतिवान् कभी न पकड़ सकेगा; क्योंकि जिस स्थान को मंद गतिवान ने छोड़ा है वहाँ तक तीव्र गतिवान् को पहुँचना पड़ेगा और इसलिये मंद गतिवान् आवश्यकीय रूप से सदा कुछ दूर आगे ही रहेगा। स्पष्ट है कि ये दो तर्क परिमित अखंड महत्ताओं की अनन्त विभाज्यता का खंडन करते हैं। जिनागम के अनुसार अमूर्तिक आकाश द्रव्य को स्यात अखंड और स्यात् अनन्त प्रदेशवान् माना गया है। प्रदेश (खड) की अवधारणा पुद्गल परमाणु की अविभाज्यता या अंत्य महत्ता के आधार पर मुख्य रूप से को गई है । इस प्रकार अमूर्त द्रव्य में भेद (विभाजन) की कल्पना को स्थान न देकर केवल मूर्त द्रव्य पुद्गल में भेद की सम्भावना की पुष्टि कर, और प्रदेश की परिभाषा, "जितने आकाश को एक अविभागी पुद्गल परमाणु को व्याप्त करे” रूप में देकर, लोकाकाश में असंख्यात प्रदेशों की मुख्य रूप से कल्पना की गई है। यहाँ तक ही नहीं, वरन् एक सूच्यंगुल में प्रदेशों की संख्या का प्रमाण, संख्यामान और उपमामान में समीकरण स्थापित करते हुए, वह प्रमाण बतलाया गया है जो पल्योपम काल राशि में स्थापित समयों की संख्या के अर्द्धच्छेद प्रमाण का परस्पर गुणन करने पर प्राप्त हो। इस परम्परागत समीकरण के आधार पर प्रथम तर्क का समाधान होता प्रतीत होता है, क्योंकि सृष्टि में परमाणु को अंत्य महत्ता प्राप्त करा देने पर, किसी परिमित दूरी में अर्द्धच्छेदों की संख्या का प्रमाण अधिक से अधिक असंख्यात ही होने पर, अनन्त विभाज्यता का प्रश्न उठता प्रतीत नहीं होता। असंख्यात प्रमाण मुख्यरूप कल्पना के आधार पर, द्वितीय तक भी समाधानित होता प्रतीत होता है, क्योंकि परमाणु स्वरूप अंत्यमहत्ता वाली वस्तुओं के भी गमनसम्बन्धी सद्भाव में किसी दूरी के अर्द्धच्छेद, त्रयच्छेद, चतुर्थच्छेद आदि सभी की संख्या, प्रदेश की कल्पना के आधार पर असंख्यात अथवा संख्यात ही होगी, अनन्त नहीं; और इस प्रकार "कभी नहीं" प्रश्न भी समाधानित होता प्रतीत होता है। ऐसा प्रतीत होता है मानो जीनो ने भौतिक संसार में होने वाली घटनाओं को ही वास्तविक आधार मानकर अमूर्तिक आकाश की विभाज्यता की कल्पना का खंडन किया है। ऐसा कहा जाता है कि ये तर्क पिथेगोरीय सिद्धान्तों के खंडन के लिये नहीं थे, * Ibid. p. 638. + T. Heath, Greek History of Mathmetics vol. I, p. 275, (1921) + Ibid. pp. 275 276.
SR No.090174
Book TitleGanitsara Sangrah
Original Sutra AuthorMahaviracharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain, L C Jain
PublisherJain Sanskriti Samrakshak Sangh
Publication Year1963
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, & Maths
File Size35 MB
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