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________________ प्रस्तावना अस्तित्व का अंत माना जाना, जैन मान्यता की पंचम गति, मोक्ष से समन्वय स्थापित करना प्रतीत होता है | यह चंदु चंक्रमण स्वस्तिक के अर्थ को भी स्तूप की भुजा प्ररूपणा में समन्वित करना दृष्टिगत होता है । कर्म सिद्धान्त की मान्यता की सदृशता कुछ अंशों में हमें निम्नलिखित उद्धरणों में भी दृष्टिगत होती हैं— ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्राह्मणा हुतम् । ब्रह्मैव तेन गंतव्यं ब्रह्म कर्म समाधिना ॥ पुनः यज्ञ के इस निर्वचन को लेकर यह कथन है गत सङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थित चेतसः । यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते ॥ इसी अभिप्राय को निम्नलिखित श्लोक में निदर्शित किया है— यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन । ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्म सात्कुरुते यथा ॥ 17 पिरेमिड में स्थित अन्य वस्तुओं के नाम धार्मिक महत्ता से ओतप्रोत थे । "अनन्तत्व का दुर्ग" था, तथा साथ में रखी जानेवाली नाव सम्भवतः संसारसागर से प्रतीक रूप थी। जो कुछ हो, इतना अवश्य है, कि मृत्यु के उपरांत आनेवाली में इसी जीवन के अंतराल में पूरी तैयारियाँ की जाती थीं, सम्भवतः न केवल राजा के लिए, वरन् राज्यसत्तद्वारा इस स्तूप प्रतीक प्ररूपणा के सहारे समस्त बुद्धि जीवी वर्ग के लिये भी । सबसे प्राचीन हीलिआपोलिस के मंदिर के पिरेमिड प्रतीक को सबसे वृहत् रूप में स्थापित करने का श्रेय अहिंसा के प्रबल समर्थक कूफू कोही है । में इस प्रकार बने हुए स्तूपों को मिस्री में मेर m (e) r कहा जाता है, जिसका निर्वचन 'आरोहण स्थल' ( place of ascension ) किया जाता है । यह निर्वचन यद्यपि भाषा विज्ञान विषयक नियमों के विरुद्ध नहीं है, तथापि संशयात्मक है । फिर भी, पिरेमिड ग्रंथों ( texts ) में इस प्रकार का उल्लेख है कि "उस (राजा) के लिये स्वर्ग सोपान डाली गई है ताकि वह स्वर्गारोहण कर सके |”() यह विश्वास न केवल प्राचीन मिस्र ही प्रचलित था, वरन् मेसोपोटेमिया, एसिरिया और बेबिन में भी प्रचलित था जहाँ आठ मंजिलों की इमारतें सम्भवतः इसी हेतु निर्मित की गई थीं । इनका नाम ज़िगुरात था और सिपार ( Sippar ) के ऐसे भवन का नाम 'उज्ज्वल स्वर्ग का सोपान भवन' था । इन स्तूपों का अन्य प्रचलित पिरेमिड है, जो यूनानी भाषा के मिस्री गणितीय ग्रन्थ के अनुसार सम्भवतः यह एक ज्यामितीय पद है, जिसका अर्थ, "वह जो अस (us) से (सीधा) ऊपर जाता है” बिलकुल अस्पष्ट, किन्तु पिरेमिड ( स्तूप ) के उत्सेध का द्योतक है । हम अभी नहीं कह सकते कि तिलोयपण्णत्ती में वर्णित समवशरण की विधियों में निर्मित थूह क्या इन्हीं से सहसम्बन्धित हैं ? पिरोमिस शब्द से उत्पन्न हुआ है । * श्रीमद्भगवद् गीता ४- २४ + वही, ४ - २३ + वही, ४-३७ () The Pyramids of Egypt, pp. 236, 237. ग० सा० सं० प्र०-३ समाधि का नाम पार ले जाने की घटनाओं की आशंका
SR No.090174
Book TitleGanitsara Sangrah
Original Sutra AuthorMahaviracharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain, L C Jain
PublisherJain Sanskriti Samrakshak Sangh
Publication Year1963
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, & Maths
File Size35 MB
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