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________________ खातव्यवहारः अत्रोदेशकः वेदः समचतुरश्रा साष्टभुजा हस्तनवकमुत्सेधः । घटिता तदिष्टकाभिः कतीष्टकाः कथय गणितज्ञ ॥ ४५३ ॥ अष्टकरसमत्रिकोणनवहस्तोत्सेध वेदिका रचिता । पूर्वेष्टकाभिरस्यां कतीष्टकाः कथय विगणय्य ॥ ४६३ ॥ समवृत्ताकृतिवेदिर्नवहस्तोव कराष्ट्रकव्यासा घटितेष्टकाभिरस्यां कतीष्टकाः कथय गणितज्ञ ॥ ४७ ॥ आयतचतुरश्रस्य त्वायामः षष्टिरेव विस्तारः । पञ्चकृतिः षड् वेधस्तदिष्टकाचितिमिहाचक्ष्व ॥ ४८३ ॥ प्राकारस्य व्यासः सप्त चतुर्विंशतिस्तदायामः । घटितेष्टकाः कति स्युश्चच्छ्रायो विंशतिस्तस्य ।। ४९३ ॥ व्यासः प्राकारस्योर्ध्वे षडघोऽथाष्ट तीर्थका दीर्घः । घटितेष्टकाः कति स्युश्चच्छायो विंशतिस्तस्य ।। ५०३ ॥ द्वादश षोडश विंशतिरुत्सेधाः सप्त षट् च पञ्चाधः । व्यासा मुखे चतुस्त्रिद्विकाञ्चतुर्विंशतिदीर्घः ।। ५१३ ॥ उदाहरणार्थ प्रश्न ८. ५१३] २६३ समचतुरश्र छेदवाली एक उठी हुई वेदी है, जिसकी भुजा का माप ८ हस्त और ऊँचाई ९ हस्त है । वह वेदी ईंटों की बनी हुई है। हे गणितज्ञ, बतलाओ कि उसमें कितनी इष्टकाएँ हैं ? ।। ४५ ।। समभुज त्रिभुज छेदवाली किसी वेदी की भुजा का माप ८ हस्त और ऊँचाई ९ हस्त है । यह उपयुक्त ईंटों द्वारा बनाई गई है । गणनाकर बतलाओ कि इस संरचना में कितनी इष्टकाएँ हैं ? ।। ४६३ ॥ वृत्ताकार छेदवाली एक वेदी जिसका व्यास ८ इस्त और ऊँचाई ९ हस्त है, उन्हीं ईंटों की बनी है । हे गणितज्ञ, बतलाओ कि उसमें कितनी ईंटें हैं ? ।। ४७ ।। आयताकार छेदवाली किसी वेदी के संबंध में लंबाई ६० हस्त, चौड़ाई २५ हस्त और ऊँचाई ६ हस्त है । उस ईंट के ढेर का माप बतलाओ ।। ४८ । एक सीमारूप दीवाल मोटाई (व्यास) में ७ हस्त, लंबाई ( आयाम ) में २४ हस्त, ऊँचाई उच्छ्राय ) में २० हस्त है । उसे बनाने में कितनी इष्टकाओं की आवश्यकता होगी ? ।। ४९३ ।। • किसी सीमारूप दीवाल की मुटाई शिखर पर ६ हस्त और तली में हस्त है । उसकी लंबाई २४ हस्त और ऊँचाई २० हस्त है । उसे बनाने में कितनी इष्टकाओं की आवश्यकता होगी ? ॥ ५०३ ॥ संबंध में ऊँचाइयाँ तीन स्थानों में क्रमशः १२, १६ क्रमश: ७, ६ और ५ तथा ऊपर ४, ३ और २ हस्त है; किसी प्रवण ( उतारवाली ) वेदी के और २० हस्त हैं; तली में चौड़ाई के माप लंबाई २४ हस्त है । ढेर में इष्टकाओं की संख्या बतलाओ ॥ ५१३ ॥ (५०३ - ५१३) दीवाल की घनाकार समाई प्राप्त करने के लिये उपर्युक्त ४ थे श्लोक के उत्तरार्द्ध में दिये गये चित्रानुसार परिगणित औसत चौड़ाई को उपयोग में लाते हैं, इसलिये यहाँ कर्मान्तिक फल का मान विचाराधीन हो जाता है । (५१३) यह प्रवण वेदी दो अंतों ( ends ) में दो ऊर्ध्वाधर (लंबरूप) समतलों द्वारा सीमित है ।
SR No.090174
Book TitleGanitsara Sangrah
Original Sutra AuthorMahaviracharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain, L C Jain
PublisherJain Sanskriti Samrakshak Sangh
Publication Year1963
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, & Maths
File Size35 MB
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