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________________ 10 गणितसारसंग्रह बीच श्रीधराचार्य को छोड़कर कोई प्रकांड गणितज्ञ न हुआ । महावीराचार्य ने अपने समय के नृपतुंग अमोघवर्ष के आश्रय में रहकर, पूर्ववर्त्ती गणितज्ञों के कार्य में कुछ सुधार किया, नवीन प्रश्न दिये, दीर्घवृत्त ( ellipse) का क्षेत्रफल निकाला तथा मूलबद्ध और द्विघातीय समीकरण आदि में सुंदर ढंग से पहुँच की । इनके ग्रन्थ में ब्रह्मदत्त कुट्टक से एक और अध्याय अधिक है, पर इसके अध्यायों के विषय एकसे नहीं हैं। सबसे पहिले, इस ग्रंथ की ४९ वीं गाथा पढ़ने से मालूम होता है कि महावीराचार्य ने शून्य के विषय में सबसे पहिले भाग करने की क्रिया दर्शाने का साहसपूर्ण प्रयत्न किया । किसी संख्या में शून्य द्वारा विभाजन के लिए, उन्होंने लिखा कि संख्या शून्य द्वारा विभाजित होने पर बदलती नहीं है । जिस दृष्टिकोण को लेकर यह लिखा गया वह इसलिए ठीक है कि जब कुछ वस्तुओं को लेकर उन्हें कुछ व्यक्तियों में बाँटा जाय तो वे वस्तुएँ विभाजित हो जायेंगी । जब उन्हें शून्य व्यक्तियों में वितरित करना हो, अर्थात् बाँटना हो तो वस्तुएँ ज्यों की त्यों बच रहेंगी। पर, गणितीय विश्लेषण के दृष्टिकोण से सीमा क -= Oc न ० न होती है जहां क एक परिमित ( finite ) संख्या है । इसके पश्चात्, गाथा ६३ से लेकर ६८ तक संकेतनात्मक स्थानों के नाम दिये गये हैं । उनके पहिले १९ वें स्थान तक संख्या की गणना के नाम दिये जा चुके थे । उन्होंने २४ स्थान तक नाम दिये जिसमें २४ वें स्थान का नाम महाक्षोभ लिखा है । ये २४ स्थान, सम्भवतः २४ तीर्थकरों की संख्या के आधार पर दिये गये होंगे। इसी तरह रत्न शब्द को " तीन” दर्शाने के लिए उपयोग किया गया, जबकि गणितज्ञों ने उसका उपयोग "पांच" दर्शाने के लिये किया । जैन दर्शन में सम्यक्दर्शन ज्ञान चारित्र को रत्नत्रय कहा गया है । इसी प्रकार तत्व, पन्नग, भय, कर्म आदि कई शब्दों का उपयोग जैन दर्शन के आधार पर संख्यायें दर्शाने के लिये किया गया है। बड़ी संख्या को दर्शाने के लिए ग्रन्थकार ने स्थानाह का उपयोग किया है । जैसे, ३०२१ लिखने के लिए चंद्र, अक्षि, आकाश, अनि लिखा है । ग्रंथकार ने भाग देने की एक वर्त्तमान विधि का कथन किया । इस सुविधाजनक विधि से उभयनिष्ठ गुणनखंडों को हटाकर विभाजन किया जाता है। किसी भी भिन्न को इकाई भिन्नों की किसी संख्या के योग द्वारा व्यक्त करने के लिए कुछ नियम भी दिये गये हैं । ये नियम सर्वथा मौलिक हैं। मिश्रक व्यवहार में भी दो नये प्रकार के प्रश्नों को हल करने के लिए नियम दिये गये हैं । ब्याज निकालने के प्रश्न में गाथा ( ३८ ) में दिये गये सूत्र से पता चलता है कि महावीराचार्य को निम्नलिखित सर्वसमिका ( identity ) ज्ञात थी : अ स इ अ+स + इ + ... ब + द + फ+... साथ ही, ( अ + ब ) 3 = अ + ३अ'ब ब द फ + ३ब' अ + ब', द्वारा प्रदर्शित सूत्र उनके पूर्ववर्त्ती गणितज्ञों द्वारा दिया गया पर महावीर ने इस सूत्र का साधारण रूप बनाकर प्रस्तुत किया, जिसके लिए नियम भी बतलाये गये हैं ...= ( अ+ब+स+ द +) = अ + ३अ ( ब+स+ द + + ३अ ( ब + स + द +) + ( ब + स+ द + . ..), इत्यादि । ग्रंथकार ने कूट स्थिति द्वारा भी अध्याय ३ तथा ४ के कई प्रश्न हल किये हैं । कूट स्थिति के नियम का उपयोग बीजगणित के विकास की पूर्वावस्था को दर्शाता है, जबकि अज्ञात के लिये कोई प्रतीक होता था । भारत में यह नियम केवल अंकगणित में उपयोग में लाया गया, क्योंकि बीजगणित पहिले से
SR No.090174
Book TitleGanitsara Sangrah
Original Sutra AuthorMahaviracharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain, L C Jain
PublisherJain Sanskriti Samrakshak Sangh
Publication Year1963
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, & Maths
File Size35 MB
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